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अदिति, तुम्हारी कोख से
मेरा आदित्य जन्मे
सुनता हूँ, कि मेरे शैशव का पालना, जब नंद्यावर्त-महल में झूला, तभी उसका राजद्वार, मुझ तक आने को, हर किसी के लिए खुल गया था। कोई ऐसी अलक्ष्य प्रेरणा काम कर रही थी, कि मेरे परिजनों से यही करते बना। और फिर अपनी बाल्य-क्रीड़ाओं में स्वयम् मैंने ही, महल की मर्यादा अनायास खत्म कर दी थी। कुण्डपुर में, ब्राह्मण से लेकर शूद्र तक की गोद में, मैं अचानक बैठा दीख सकता था। किशोरावस्था को पार करते-करते, मैंने अपने को अधिक-अधिक अन्तर्मुख
और स्वप्निल होते पाया। भरसक अकेले रहना ही मेरा स्वभाव हो चला। भीतर से आती थीं विचित्र पुकारें : और उनके आवेग में होती थीं निरुद्देश्य भटकनें और यात्राएँ । घर में रहूँ या बाहर, अकेला और स्वयम् को भी दुर्लभ हो चला था। सुनता था, मुझे लेकर, चारों ओर दूर देशान्तरों तक अनेक कहानियाँ चल पड़ी हैं। ___ इधर.लोक-भ्रमण का प्रसंग आया। तो प्रकट में आकर, मैंने सर्वत्र और भी प्रश्न और उत्सुकता जगाई है। बिजली के वेग से और कौंध की तरह, जनगण में से गुजरा हूँ। सब की आँखों का तारा और प्यारा हो गया हूँ। सुनता हूँ, लोग मुझे बहुत चाहते हैं, और बुलाते हैं। तो जाऊँगा ही सब के पास, ठीक समय आने पर । - ‘और वह समय अब दूर नहीं दीखता।
इधर बाहर जो यह मेरा फैलना हुआ, तो कई दूर-पास के युवागण मेरे पास आने-जाने लगे हैं। क्षत्रिय कुलपुत्र मुझ से खिन्न हुए हैं, क्योंकि उन्हें अपने मन का आभिजात्य मुझ में नहीं मिला। उन्हें लगता है, मैं उनमें से एक नहीं हूँ। राजपुत्र हो कर भी, राजवेश, वैभव और कुल-मर्यादा के प्रति लापर्वाह हूँ। गणतंत्रों के ये क्षत्रिय कुमार मझ में अपना नेता खोज रहे हैं। पर मुकुट, महिमा, सुरा, सुन्दरी, शस्त्र, राजगौरव से रहित मुझे देख कर वे निराश हैं।
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