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के लिए और उसे अपने बीच पाने के लिए सारे आर्यावर्त के जनगण तरस रहे हैं। गणतन्त्र के योग्य बेटे की इससे बड़ी पहचान और क्या हो सकती है ?
'
'लोक ने मुझे अपनाया । मेरा होना कृतार्थ हुआ ।'
'अब समय आ गया है, कि जनगण के छत्रधारी बनो तुम । वैशाली की मंगलपुष्करिणी तुम्हारे राज्याभिषेक की प्रतीक्षा में है ।'
.' वही मंगल- पुष्करिणी, तात, जहाँ मुक्त जल तत्व बन्दी है ? और राज्य यदि मेरा कोई हो, तो उसे मैं वैशाली तक सीमित नहीं देख पाता । लगता है कि, मेरा राज्य असीम का ही हो सकता है। और ऐसा राजा यदि मैं हूँ, तो मंगल-पुष्णकरिणी का क़ैदी जल नहीं, आकाश से बरसती हुई मुक्त वृष्टिधाराएँ ही मेरा राज्याभिषेक कर सकती हैं ।'
'साधु-साधु वर्द्धमान ! सचमुच, हम तुम्हारे उसी साम्राज्य का सपना देख रहे हैं। मंगल-पुष्करिणी तुम्हारे चरणों का प्रक्षालन कर, अभयदान पाना `चाहती है। उसे अपने मुक्तिदाता की प्रतीक्षा है ।'
'जल-तत्व अपने स्वभाव से ही स्वतंत्र है; मेरे चरण-प्रक्षालन पर उसका स्वातंत्र्य निर्भर नहीं । उसे मैं सर पर ही धारण कर सकता हूँ। क्या ताले और पहरे में रख कर, आप सोचते हैं, आप उसकी रक्षा कर सकते हैं ? '
'पुष्करिणी हमारे पूर्वजों के अंग-स्पर्श से पावन है । उसमें राज्याभिषेक प्राप्त कर, हमारे वंशधर अपनी देह में, अपनी परम्परा की रक्तधारा को अटूट अनुभव करते हैं। उसकी रक्षा
."
'उसकी रक्षा, आपके और मेरे वश की नहीं, तात ! अपनी रक्षा करने में वह आप समर्थ है । उसकी पवित्रता, आपके और मेरे पूर्वजों के अंग- स्पर्श और राज्याभिषेक की कायल नहीं। जल अपने निज रूप में ही पवित्र है । आपके परकोटों, फ़ौलादों, पहरों और तालों को तोड़ कर बंधुल मल्ल अपनी प्रिया मल्लिका को उसमें नहला गया। क्या आप का तमाम इन्तज़ाम भी उसकी रक्षा कर सका ?'
. गणाधिपति का चेहरा तमतमा आया ।
'वह बलात्कारी था ।
''
'हमने उसे बलात्कारी होने को विवश किया, महाराज । क्योंकि उससे पहले हम जल-तत्व के बलात्कारी थे । असत्य और हिंसा के इस दुवृत्त में, किसे अपराधी कहें और किसे नहीं ? मुझे तो ऐसा लगा कि बन्धुल की वज्रभेदी तलवार और
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'अत्याचारी ! इसी से तो
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