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दर्शन और सिद्धांत नहीं कहते । वे तो एक बारगी ही, अनन्तधर्मी वस्तु सत्य का अनेकार्थी और प्रवाही कथन करते है : अनिर्वच को वे अपने अनहदनाद से वाक्मान करते हैं । वह एक बँधा - बँधाया, सुनिर्दिष्ट, पक्का सिद्धान्त हो ही नहीं सकता । दर्शन और सिद्धान्त तो बहुत पीछे आने वाले श्रुतज्ञानी आचार्य सुनिश्चित बौद्धिक परिभाषाओं में रचते हैं । भाषा सीमा के कारण उन में एकान्तवाद का दोष आ जाता है । दर्शन और सिद्धान्त बन कर सत्य एकान्तवादी हो ही जाता है । अनेकान्तिक वस्तु सत्य का ताद्रष्ट और यथार्थ प्रवक्ता वह रह नहीं सकता ।'
'तब तो मानना होगा कि सर्वज्ञ का वचन भी टल सकता है, मिथ्या हो सकता है ? '
'सर्वज्ञ एकवचनी वाणी नहीं बोलते, तात, वह वाक्मान होकर भी, अनेकार्थिनी, अनेक भाविनी वाणी होती है । वह टल और अटल, धारणागत सत्य और मिथ्या
भाषा से परे, एक अनन्त ज्ञान - ज्योति की धारा होती है । वह बौद्धिक अर्थ, व्याख्या, विवेचन से परे, मात्र भाव- गम्य होती है । उसके श्रवण मात्र से चेतना में अतिक्रान्ति घटित हो जाती है ।'
'तो ऐसी वाणी का मर्म आज कौन उद्घाटित करे, उसका बोध कौन कराये ?" 'उसका जो समग्र बोध मेरे भीतर, निरन्तर उद्भासित है, उसे किंचित् शब्दों तक लाने का प्रयास मैंने अभी किया है, भन्ते मातामह ! जिनेश्वर भगवन्तों की कृपा से, अपने अन्तश्चैतन्य की गहराई में, उस कैवल्य ज्योति की पूर्वाभा को मैं फूटता देख रहा हूँ ।'
'वर्द्धमान, क्या हमारे काल का वह तीर्थंकर जन्म ले चुका ?'
.... !
'निश्चय, महाराज
'कहाँ, किस पुण्य भूमि में कब ? '
'वह अन्यत्र और आगामी अब नहीं, राजन् । प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या
'बेटा
?'
'तो अब आज्ञा दें, तात !
'लेकिन हमारी प्रस्तुत समस्याओं में, हमें तुम्हारा परामर्श चाहिये. आयुष्मान् । आज बात तात्विक हो गई; प्रासंगिक के लिए तुम्हारा निर्देश और सहयोग पाना चाहूँगा ।'
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'कल इसी समय, यहीं उपस्थित रहूँगा, भन्ते मातामह !'
मैंने दोनों पितृजनों के चरण-स्पर्श कर बिदा ली। और मुझे लगा, कि दोनों राजपुरुष संभ्रमित-से खड़े, मेरी जाती हुई पीठ को ताकते रह गये हैं। 00
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