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· · · मूक्ष्मतम जीवों के साथ भी निरन्तर आत्मोपम भाव से जीने के व्रती वही ब्राह्मण, आज इतने अज्ञानी और प्रमादी हो गये हैं, कि उनके अधःपतन से वस्तु-धर्म पर आधारित आर्यावर्त की समाज-व्यवस्था एक सर्वनाशी अराजकता के खतरे में पड़ गयी है। अपने को मर्धा पर बैठे पाकर ब्राह्मण अहंकार से प्रमत्त हो उठे। जो जन्मजात ब्रह्मचारी होने को नियोजित थे, वे अत्याचारी हो उठे। अपनी हीनतम वृत्तियों के तोषण-पोषण के लिए, उन्होंने अपने ज्ञानगर्व और पदस्थ से द्रप्त होकर, स्वार्थों के पोषक मनमाने मिथ्या शास्त्र रचे। अपनी ज्ञानवत्ता के बल पर उन्होंने क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रों को अनेक लोक-परलोक के भय दिखाकर आतंकित किया। क्षत्रियों और वैश्यों के राज्य और उपार्जन से वे लुब्ध हुए, छोटे पड़ गये। उनमें संचय और अधिकार की तृष्णा जागी। उन्होंने आडंबरी कर्म-कांडों का विधान किया और दान-दक्षिणा के नाम पर लोक की समस्त सम्पदा अपने लिए बटोरने लगे। उन शीर्षस्थों के अध: पतन ने विपथगामी आदर्श प्रस्तुत किया। उनके अनुकरण में क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र भी धर्म-च्युत हो गये। लक्ष्य में धर्म न रहा, लोभ प्रतिष्ठित हो गया। तब कुछ क्षत्रिय जागे : इस अनाचार के मूल को उन्होंने चीन्हा। उन्होंने अपनी क्षात्र तलवार को ब्रह्मज्ञान की सान पर चढ़ा कर, लोकत्राता क्षात्र-धर्म की एक नयी उत्क्रान्ति उपस्थित की। योगीश्वर कृष्ण, तीर्थंकर अरिष्टनेमि, राजर्षि विश्वामित्र, गौतम, प्रवहण जैवली, प्रतर्दन, विदेह जनक, भगवान पार्श्वनाथ आदि, ब्रह्मतेज और क्षात्रतेज से संयुक्त इस नूतन धर्म की परम्परा में आदित्यों की तरह प्रकाशमान हुए। अध:पतित ब्राह्मणत्व पर, परित्राता क्षत्रियों का यह ब्रह्मतेज विजयी हुआ। आत्माहुति के यज्ञ में, इन राजर्षियों ने अपनी तलवारों को गला कर, सर्व चराचर के संरक्षक एक नूतन विश्वधर्म की प्रतिष्ठा की।
यह क्षत्रिय-प्रभुता भी पराकाष्ठा पर पहुँच कर, उसके वंशधरों के हाथों फिर स्वार्थ का हथियार बनी और अध:पतित हुई। मेरे काल का यह आर्यावर्त क्षात्रतेज के उसी अधःपतन की पराकाष्ठा पर है। अब देख रहा हूँ, वणिक् प्रभुता का उदय हुआ है। पूर्वीय समुद्र से पश्चिमी समुद्र के छोरों तक की आसमुद्र पृथ्वी पर इन वणिकों के सार्थवाह अपनी विजय-वैजयन्ती बड़े गर्व से फहरा रहे हैं। ब्रह्मतेज और क्षात्रतेज दोनों ही आज हतप्रभ हो कर, इन वणिकों की अपार सम्पत्ति के हाथों बिके हुए हैं। इस क्षण इतिहास के विधाता और निर्णायक ब्राह्मण और क्षत्रिय नहीं, वणिक श्रेष्ठी हैं।
· · · इस व्यवसाय-प्रधान व्यवस्था में, राजर्षियों द्वारा परास्त ब्राह्मण ने अपने को पुनरस्थापित करने के लिए धर्म को एक वाणिज्य का स्वरूप प्रदान
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