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'क्या कह रहे हो, वर्द्धमान ! वे सुन कर पागल हो जायेंगे। एक दिन भी वे मेरा दूर जाना सह नहीं सकते, चाहे फिर महीनों मेरे पास न आयें। और मगध-वैशाली के सीमांत-महल में ? अनर्थ हो जाये . . !'
'कितने समय से तुम उन्हें नहीं मिलीं, मौसी ?'
'पूरा चौमासा बीत गया। बादल-बिजली की तूफानी रातों में चितित हो उठी हूँ बार-बार, कि कहाँ होंगे? पर अभय तक को पता नहीं है कि कहाँ हैं वे ?'
'अभय की आँख से श्रेणिक की बचत कहीं नहीं है, राजेश्वरी ! सालवती के नीलकांति-प्रसाद में तुम जा सकती हो, मौसी?'
'किसलिए · · · ?' चेलना की भौहें कुंचित हो गयीं। 'अपने सम्राट का पता पा लेने को· · · !' 'मुझ पर दया करो, वर्द्धमान · · · !'
'सालवती का अज्ञात-पितृजात पुत्र जीवक कौमार भृत्य, अभय की तरह ही तुम्हारा बेटा है ! अभय ने घूरे पर से उठा कर अपने महल में उसे पाला। तक्षशिला में रख कर उसे अनेक शिल्प-विज्ञानों में दक्ष बनाया। आज वह भारतीय आयुर्वेद का धनवंतरी है। उज्जयिनी-पति चंडप्रद्योत और कोसलेन्द्र प्रसेनजित का वह निजी और गोपन चिकित्सक है। मगध से वीतिभय और गांधार तक, वह केवल इन राजेश्वरों के धातुओं का ही कर्ता-धरता नहीं, इनके कूट-चत्रों की नाड़ियाँ भी जीवक भिषग की उँगली के इशारों पर चल रही हैं। मगधेश्वर का यह सूर्यांशी पुत्र वर्तमान भारत का सबसे बड़ा रासायनिक है. . . !'
_ 'वर्द्धमान, तुम क्या कहना चाहते हो . . ?' मौसी का स्वर रुआँसा हो आया।
'यही कहना चाहता हूँ, मौसी, कि सालवती के महल में जा कर एक बार पता कर आओ, कि क्या तुम्हारे स्वामी को वहाँ चैन पड़ा? और उनसे कहो, कि जहाँ चाहें वहाँ वे निश्चित विचरें । चाहें तो तुम्हें भी साथ ले जायें। पृथ्वी की तमाम जनपद-कल्याणियों और अपनी मन-मोहिनियों के समक्ष वे तुम्हें खड़ी देखें । · · ·उनसे कहो, मौसी, कि चलो मेरे साथ वैशाली, देवी आम्रपाली के पास तुम्हें पहुँचा आऊँ। और कहो कि वैशाली की
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