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वैशाली के संथागार में
महाराज सिद्धार्थ अपने निज कक्ष में, एकाएक मुझे सामने खड़ा पाकर भौंचक्के रह गये | बचपन के बाद पहली बार यहाँ हूँ, और इस वैभव के कक्ष में, जैसे एकदम ही विदेशी की तरह खोया खड़ा हूँ । आश्चर्य से राजा निस्तब्ध हैं, और मानो मुझे नये सिरे से पहचानना चाह रहे हैं ।
'बापू, कल वैशाली जाना होगा । आदेश पा गया हूँ !'
'यह तो चमत्कार हुआ बेटा ! आज बड़ी भोर ही वैशाली से अश्वारोही तुम्हारे लिए निमंत्रण लेकर आया है । मैं स्वयम् तुम्हारे पास आने ही को था, कि तुम खुद भी आ कर मुझ से वही कह रहे हो । आश्चर्य
'मुहूर्त इसी को तो कहते हैं, महाराज ! '
'चेटकराज ने लिखा है, बेटा, कि चम्पा को भीतर-बाहर चारों ओर से मागधों ने घेर लिया है । पूर्वीय समुद्र - पत्तन पर से सुवर्ण-द्वीपों को जाने वाले जहाज़ों को मागध अपने पोतों में खाली कर, सारी सम्पदा मगध पहुँचा देते हैं । चम्पा का वाणिज्य समाप्त हो गया ।'
'तो चम्पा की मुक्ति का मार्ग आसान हो गया, बापू !'
'वर्द्धमान, यह क्या कह रहे हो तुम ?'
'यही कि चम्पा अपने शत्रु को अब ठीक-ठीक पहचान सकेगी ।'
'शत्रु को पहचानना तो अब असम्भव हो गया है, चम्पा में । जन-जन के घर-घर में शत्रु मित्र बन कर घुसे बैठ हैं । ऐसा लगता है कि चम्पा के जन ही देश-द्रोही हो उठे हैं ।'
'देश-द्रोही नहीं, राज-द्रोही कहिये, बापू । और जन के लिए वह होना तो स्वाभाविक था । पर मातृभूमि का द्रोह कभी जन नहीं करते तात, वह तो महाजन और राजन ही करते हैं। क्योंकि उनके मन सम्पदा और सत्ता से
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