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उसके बन्धनों को तोड़ने के लिए, पहले मुझे स्वयंम् निर्बन्धन हो जाना पड़ेगा। इस महल की आकाश-चुम्बी अट्टालिका से मेरी अगली छलांग, अब आकाश-वेधी पर्वत-कूट पर ही हो सकती है। माँ वसुन्धरा की उस वक्षोज-चूड़ा पर नग्न लेट कर, मैं उसके हृदय तक पहुँचना चाहता हूँ। ताकि इस बार जो दूध उसकी छाती से उमड़े, वह उसकी हर सन्तान को समान रूप से सुलभ हो सके। ताकि उसकी छाती महिषासुरों के बलात्कार से मुक्त हो कर, सही अर्थों में जगदम्बा की छाती हो सके।
. . 'अपूर्व है मध्य-रात्रि का यह मुहूर्त-क्षण । निर्णायक है यह घड़ी। कई रातों से सोना नहीं हो सका है। इस महल में अब वह सम्भव भी नहीं। . . . चंक्रमण, चंक्रमण, चंक्रमण । मेरी पगतलियों में चंक्रमण के चक्र चल रहे हैं। • • •
'मैं आ सकती हूँ ? - 'माँ, इस समय, तुम यहाँ ?' 'हाँ, इससे पहले तुम मेरी पहोंच से परे थे. . . ?' 'अर्थात् . . . ?'
'अबेर रात गये, अचानक ही चेलना राजगृह से आई। तुरन्त तुमसे मिलना चाहती थी। अनिवार्य । · · · पर यहाँ आकार जो देखा · · · । उल्टे पैरें, लौट गई। चेलना को क्या उत्तर देती। कहला दिया, बाहर से तुम लौटे नहीं अभी। · · ·पर जो देख गई थी, उसके बाद रहा न गया । सो आये बिना रह न सकी ।'
इससे पूर्व माँ इतनी अजनवी और दूर तो कभी नहीं लगी थीं। उनका सारा चेहरा दबी रुलाई से दमक रहा था।
'वह तुम्हारा अधिकार है, माँ। उसमें संकोच कैसा?' 'जो रूप तुम्हारा देखा । उसके बाद भी ?'
'हाँ-हाँ माँ, निश्चय । क्या नग्न ही नहीं जन्मा था तुम्हारी कोख से ? बीच में आवरण आये। पर अब फिर अन्तिम रूप से तुम्हारी गोद में नग्न हो सो जाना चाहता हूँ। तुम्हीं संकोच करोगी, अम्मा, तो फिर मुझे कौन सहेगा . . ?'
'क्या नहीं सहा अब तक, मान ! चूंट पीती गई और चुप रही। पर आज मेरे धीरज का बाँध टूट गया। · · अब कहे बिना चैन नहीं है. . . ।' ____ तो कहो न, जी खोल कर कहो। तुम चुप रहती हो, तो मुझे भी उससे पीड़ा होती है। बोलो, जी खोलो। तुम्हें सुनना चाहता हूँ। सम्भव हो तो इस शरीर से आगे, तुम्हारे भीतर आना चाहता हूँ ।
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