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प्राणियों के बीच, मानवों द्वारा नियोजित यह वैषम्य, महान् पाप है, अधर्म है, भन्ते तात। यह कर्म-विहित नहीं, मानव-निर्मित अन्याय है, सामाजिक अन्याय। निसर्ग वस्तु-स्वभाव में, महासत्ता के मूल राज्य में, वैषम्य कहीं नहीं, विसम्वाद कहीं नहीं। जिनेन्द्रों द्वारा कथित वस्तु-सत्य को व्यभिचरित कर, जो यह विषम राज और समाज-व्यवस्था बनी है, वह अधर्म्य है, राजन् । यह एक सार्वजनिक असत्य, हिंसा और अन्याय का अधर्म-राज्य है, पाप-राज्य है, काम-राज्य है। इसके मूल में ही विनाश है, खतरा है, संकट है। जो राज्य असत्य पर टिका है, उसे सदा भय में जीना ही होगा।'
_ 'भय और आतंक तो ईष्यालओं और हमारी उन्नति के द्वेषियों ने उत्पन्न किया है, कुमार !'
'उस भय का बीज पहले आप में है, मुझ में है ; जो चोरी की सम्पदा को अपने तहखानों में रक्खेगा, वह सदा भयभीत तो रहेगा ही ! क्योंकि तब बाहर के समान स्वभावी अन्य मानव उस सम्पदा से ईर्ष्या और द्वेष करेंगे ही । मैंने कहा था न, तात, अहं-स्वार्थ, राग-द्वेष के इस प्रतिक्रिया-जनित दुश्चक्र का अन्त नहीं। शासक-तंत्र, सेना, कानून, राज-न्यायालय, शस्त्रागार, तालों, परकोटों, दुर्गों, साँकलों और अर्गलाओं से रक्षित राज्य सदा आतंकों और युद्धों के भय में ही जियेंगे । क्योंकि वह राज्य-सम्पदा चोरी की है ; वह दैवी सम्पदा नहीं, आसुरी सम्पदा है। जिस राज्य में करोड़ों को दीनहीन रख कर, कुछ लोग अपार ऐश्वर्य में बिलसते हैं, वह वस्तु-धर्म का विद्वेषी पाप-राज्य है, पितृदेव । चुराई हुई अतिरिक्त सम्पदा है वह, अनधिकार भोग है वह; इसी से तो उसके भोक्ता, सदा भयभीत रहते हैं; सैन्य, कोटवाली, क़ानून और दुर्गों से वे अपनी इस पाप-सम्पदा को सुरक्षित रखना चाहते हैं। पर वह कब तक ? यदि आप सदा बलात्कार के बल जीना और भोगना चाहते हैं, तो दूसरा सवा-बलात्कारी होकर आपकी सम्पदा और राज्य को छीन लेता है, उसमें अन्याय कहाँ है ? बल के जंगल राज्य में बल ही सत्य है, न्याय है, निर्णायक है। उसमें फिर मगध और वैशाली में कहाँ अन्तर करूँ, समझ नहीं पाता हूँ, महाराज ?'
'जब चारों ओर बलात्कार का जंगल फैला है, तो आत्मरक्षा के लिए, क्या शासन-तंत्र अनिवार्य नहीं? दुर्ग, परकोट, सैन्य, शस्त्रागार, कानून, न्यायालय, चौकी-पहरा आखिर तो आत्मरक्षा के लिए हैं, प्रजा की रक्षा के लिए
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