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'जो हो रहा है, सो तो तुम देख ही रहे हो, बेटा ! '
'जो मैं देख रहा हूँ, वह कुछ और ही है, राजन् ! और आपके ध्यान से शायद वह बाहर नहीं ! गंगा और शोण के संगम पर मगध और वैशाली का सीमांतक प्रदेश है । उस प्रदेश की नदी घाटी में जो सुवर्ण की खान है, उन पर इन दोनों ही राष्ट्रों का समान अधिकार है। गंगा - शोण संगम के पत्तन घाट पर जब भी उस सुवर्ण से लदे जहाज आते हैं, तो आधी रात ही वैशाली के महाधनुर्धर महाली अपना सैन्य लेकर वहाँ पहुँच जाते हैं । - और अपनी बाणावली के बल पर साझे का वह सारा सुवर्ण व अकेले ही बटोर ला कर वैशाली को धन्य कर देते हैं । और सवेरे जब अजातशत्रु अपना सैन्य ले कर, अपने भाग का सुवर्ण लेने आता है, तो खाली जहाजों पर तलवार टकरा कर वह लौट जाता है। मगध की तलवार यदि अब हमारे खून की प्यासी हो उठी है, तो किसका दोष है, महाराज ? '
'संधिराज्य का सुवर्ण सदा बाहुबल और शस्त्रबल से ही बटोरा जाता रहा । उसका अन्तिम निर्णय कब कहाँ हो सका ? अजातशत्रु समर्थ हो, तो अपने बाहुबल से उठा ले जाये वह सुवर्ण ! हमें कोई आपत्ति नहीं ! '
'तो बाहुबल और शस्त्रबल की इस टक्कर पर आधारित राज्य तो सदा आतंक - छाया में ही जियेगा, राजन् ! यह तो एक स्वतः सिद्ध बात है । भौतिक समृद्धि ही जिस राज्य का सर्वोपरि लक्ष्य हो रहे, उसका अस्तित्व सदा भय में ही रह सकता है । आज वज्जियों से अधिक सम्पत्तिशाली विश्व में कोई नहीं । विदेशी यात्री वैशाली के ऐश्वर्य को देखकर स्तम्भित रह जाते हैं । पार्शव का शासानुशास, महाचीन, और यवन एथेंस तक की सत्ताएँ वैशाली के कामिनी-कांचन पर गृद्ध-दृष्टि लगाये हैं । तो भारत के इन बेचारे राजुल्लों की क्या बिसात ? अपने इस सुवर्ण साम्राज्य के विश्व व्यापी विस्तार के लिए, हमने अनेक अलिच्छवि श्रेष्ठियों और सार्थवाहों को भी वैशाली में बसा लिया है । अतल सागरों और पृथ्वियों की अलभ्य रत्न-सम्पदा उनके तहखानों में बन्दी हैं । ताम्रलिप्ति के भूगर्भ से क्षीर- स्फटिक और महानील जैसे दिव्य रासायनिक रत्न निकलते हैं । बेचारी वहाँ की प्रजा उन्हें अपने लिए रख पाने में असमर्थ है। अपने लक्ष-कोटि हिरण्यों की क्रय - सामर्थ्य से वैशाली के श्रेष्टि उन्हें खरीद लाते हैं । और निश्चय ही वे संथागार के सिंहासन पर विराजमान जिनेंद्र देव के छत्र में नहीं चढ़ते । अधिकतम हिरण्यों की स्पर्धा पर
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