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'अहं - स्वार्थी के दुश्चक्रों पर आधारित राज्य शासन का निश्चय ही मूलोच्छेद कर देना होगा, गणनाथ ! राज्य वह, जो मूलगत अराजकता का उच्छेद करके, सर्वसम्वादी मौलिक राजकता स्थापित करे । धर्मराज्य की स्थापना द्वारा ही वह सम्भव है । धर्म-राज्य वह, जो व्यक्ति और वस्तु के मूलगत धर्म के आधार पर स्थापित हो । 'वस्तु-स्वभावो धम्मो वस्तु का स्वभाव ही धर्म है । महासत्ता के उस मूलगत धर्म- राज्य में वस्तु और व्यक्ति दोनों ही पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं । उनका अपना-अपना स्वतंत्र परिणमन है । उस स्वभाव - राज्य में, एक-दूसरे पर अधिकार स्थापन को कोई स्थान नहीं । स्वाभाविक आत्मदान के आधार पर ही उसमें पारस्परिक आदान-प्रदान सम्भव है । शुद्ध सत्ता के उस मौलिक विश्व में, सत्य, अहिंसा, अचौर्य और अपरिग्रह स्वाभाविक रूप से ही प्रतिष्ठित हैं । वस्तु-धर्म के और स्वधर्म के आत्मानुशासन में हम जियें, तो पारस्परिक व्यवहार में उपरोक्त आचार स्वयम् ही प्रतिफलित होगा । आत्म-रक्षा का मूल मंत्र है- 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्' । 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् - - अपने शुद्ध रूप में, उसी वस्तु-धर्मी व्यवस्था में सम्भव है । अभी जो व्यवस्था है, वह तो 'परस्परोपग्रह स्वार्थानाम्' की नीति पर आधारित है । वर्द्धमान, मानवों में बद्धमूल इस स्वार्थ- राज्य का मूलोच्छेद करके, मूल सत्ता में बिराजमान 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' का पारमार्थिक धर्म- राज्य प्रस्थापित करने आया है ।'
'साधु-साधु, बेटा ! हमारा कुल तुम्हें पाकर धन्य हुआ । इक्ष्वाकु धर्मराजेश्वरों के तुम सच्चे तेजधर और वंशधर हो । पर बेटा, आत्मा और वस्तु के इस पारमार्थिक निश्चय धर्म की स्थापना तक, हमें व्यवहार धर्म की क्रमिक श्रेणियों से गुज़र कर ही तो पहुँचना होगा ? इसी लिए न हमारे श्रमण भगवंतों ने निश्चयसम्यक्त्व और व्यवहार - सम्यक्त्व में भेद करके उत्तरोत्तर आत्म - विकास का एक क्रमिक श्रेणिगत राजमार्ग स्थापित किया है ।'
'निश्चय और व्यवहार सम्यक्त्व के इस भेद के पीछे, एक विवेक अवश्य था, बापू | पर नित्य के जगत और जीवन का इतिहास-व्यापी अनुभव यह बता रहा है कि यह भेद, वस्तु - सत्य और आचार के बीच सदा एक अभेद्य दीवार ही सिद्ध हुआ है । इस भेद की दीवार की ओट सुविधा, समझौते और प्रच्छन्न स्वार्थों के पाखण्ड ही पनपे हैं । और धर्म की आड़ में पाखंडों की यह परम्परा सुदृढ़तर होती चली गई है । श्रीमन्तों और शासकों के हाथों में यह कहा जाता व्यवहार सम्यक्त्व शोषण और स्वार्थ-पोषण का अमोघ हथियार वन कर रह गया है । इसी से कहना चाहता हूँ, भन्ते, कि निश्चय और व्यवहार का यह भेद - विज्ञान
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