________________
२११
की आने वाली कई शताब्दियों में, विशिष्ट शलाका-पुरुषों और योगीश्वरों के भीतर वे उत्क्रान्ति बीज संसरित होंगे, फूटेंगे , अंकुरित होंगे। व्यष्टिगत और समष्टिगत रूपान्तरों की अपूर्व शक्तियाँ उन बीजों में से विस्फोटित होंगी, - परम्परित होंगी।'
'तब तो पूर्वगामी तीर्थंकरों की कैवल्य वाणी मिथ्या हो जायेगी ?' _ 'जिनेश्वरों का केवलज्ञान तो अनन्त होता है, तात, सो उनकी उपदेशधारा भी अनन्तिनी होती है। वह साधारण सीमित शाब्दिक वाणी नहीं होती। शब्द तो एक बार में एक देश, एक काल ही कह सकता है। तीर्थंकर तो एक बारगी ही, अनेकान्त, अनन्त वस्तु-धर्म कहते हैं : एक बारगी ही अनन्त देश-कालवर्ती सत्य कहते हैं। सो उनकी दिव्य ध्वनि शब्दातीत अनहद नाद होती है। उनके गणधर उसका असंख्यातवाँ भाग ही ग्रहण कर पाते हैं। उसका भी असंख्यातवां अंश ही वे कह पाते हैं । उसका भी असंख्यातवाँ भाग श्रुतकेवली कह पाते हैं। उसका भी असंख्यातवाँ भाग शास्त्रों के पल्ले पड़ता है। इसीसे शास्त्रों तक पहुँचते-पहुँचते वह कैवल्यवंती जिनवाणी सीमित, दूषित, विकृत हो जाती है। उसमें सीमा या दोष जिनेंद्र का नहीं । उन्होंने ', तो सदा पूर्ण, अनन्त सत्य को साक्षात् किया और कहा है। सीमा या दोष अनुगामी अनुशास्ताओं और श्रुतकेवलियों में होता है। हम अनुयायियों में होता है। सो वह सर्वज्ञ-वाणी कालदोष के दूषण से बच नहीं पाती। तत्कालीन देश-काल और जनगत सीमाओं और स्वार्थों से दूषित होकर, वह सर्वज्ञ प्रभुओं की आर्षवाणी अनर्थक हो जाती है, और उसके प्रश्रयदाता श्रावकसमुदायों तथा वर्गों के स्वार्थ की पोषक और समर्थक तक हो जाती है। दरअसल वह सर्वज्ञ-वाणी रह ही नहीं जाती है, अज्ञों की स्वार्थ-वाणी हो जाती है।'
'तब तो, वर्द्धमान, हमारे आज के पाश्र्वानुगामी श्रमण-भगवंत जिस जिनदर्शन और सिद्धांत का प्रवचन वर्तमान में कर रहे हैं, वह मिथ्या, दूषित, सीमित है, और उसे उनके प्रश्रयदाता श्रावक-समर्थों का स्वार्थ-पोषक ही कहा जा सकता है ?'
'ऐसा हो भी सकता है, नहीं भी । पर आप जैसे विज्ञ, धर्मात्मा श्रावक कर्म, पुण्य-पाप, धर्म की जो व्याख्याएँ कर रहे हैं, यदि वही उन श्रमण-भगवंतों की व्याख्याएँ हैं, तो क्षमा करें महाराज, मैं उसे भगवान पार्श्वनाथ की अनैकान्तिनी जिनवाणी मानने को तैयार नहीं । और यह भी आप जान लें कि सर्वज्ञ भगवान,
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org