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माथे चढ़ाने की वस्तु नहीं । वह तोड़ने के लिए है, बदलने के लिए है, अपने विकास की आवश्यकतानुसार ढालने और रूपान्तरित करने की वस्तु है । वर्गभेद, ऊंच-नीच, धनी - निर्धन यदि व्यक्तियों और समूहों के अनिष्ट कर्मोदय से भी हो, तो जो लोक का सम्यग्दृष्टि शलाका-पुरुष या तीर्थंकर है, जो सर्व का पुंजीभूत अभ्युदय होता है, वह अपनी वीतराग, निष्काम आत्म-शक्ति के स्वतंत्र और शुभ संकल्प से, लोक के पुंजीभूत सामूहिक अनिष्ट कर्मोदय का विनाश कर सकता है । वह अपने सर्व वल्लभ प्रेम से सर्व के भीतर शुभ और शुद्ध आत्म-परिणाम संचारित कर सकता है । प्रेम में एक परम मांगलिक संक्रामक शक्ति है । सर्ववल्लभ प्रेमी, अपने सर्वचराचर व्यापी प्रेम से, समस्त लोक के प्राणि मात्र के हृदय में ही नहीं, बल्कि कार्मिक पुद्गल - परमाणुओं तक में, एक सर्वकल्याणकारी क्रांति, अतिक्रान्ति या रूपान्तर उपस्थित कर सकता है। क्या आप नहीं जानते, कि तीर्थंकर के समवशरण में, उनकी शुद्ध आत्मप्रभा के प्रभाव से प्राणि मात्र के वैर शान्त हो जाते हैं ? इस महाशक्ति को यदि हम पूर्ण रूप से आत्मसात् करें, तो क्या यह सम्भव नहीं, कि लोक के प्राणि मात्र के बीच शाश्वत, निर्विरोध प्रेम का साम्राज्य स्थापित हो जाये ?
'हो सका तो, मैं अपने प्रेम को ऐसा अनन्त और विराट् बनाऊँगा कि अपने देश-काल की समस्त विश्व-सत्ता को एक अभीष्ट और सर्वाभ्युदयी शक्तियों के संघात से आप्लावित और रूपान्तरित कर दूंगा । अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य जैसे अनन्त गुण और सम्भावनाएँ हैं हमारी आत्मा में । वह चैतन्य आत्मा, जड़ कर्म से अनन्त गुना अधिक बलवान है । उसके स्वतंत्र संकल्प और निष्काम इच्छा-शक्ति के लिए कुछ भी असम्भव नहीं । उसके अकर्त्ता कर्तृत्व और सम्भावना का पार नहीं ।'
'ऐसा कुछ हो जाये, तो जादू हो जाये, वर्द्धमान ! कोई अपूर्व चमत्कार घट जाये । हमारा कुलावतंस ऐसी कोई अतिक्रान्ति करे, तो उसे देखने को मैं जीना चाहूँगा, बेटा
'जादू नहीं हो जायेगा, महाराज, न कोई इन्द्रजालिक चमत्कार होगा । आगामी तीर्थंकर प्रगति और विकास की उत्क्रान्ता शक्तियों के कोई अपूर्व मंत्र - बीज मानव चैतन्य में बोयेगा । उसके जीवन काल में भी उसका एक विप्लवी संघात तो प्रकट होगा ही । पर विकास - प्रगति की धारा तो अन्तहीन है, क्योंकि जीवन-जगत ही अन्तहीन है । सो आगामी तीर्थंकर के धर्म - शासन
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