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'आप तो जिन-सर्वज्ञों के उपासकों में श्रेष्ट श्रावक-शिरोमणि और ज्ञानी है, महाराज ! सर्वज्ञों द्वारा उपदिष्ट कर्म के स्वरूप से तो आप भली-भांति परिचित ही होंगे । कर्म एक विभावात्मक और नकारात्मक वस्तु है । वह स्वभावात्मक और विधायक वस्तु नहीं। वह अभीष्ट नहीं, अनिष्ट वस्तु है । सो कर्म का विधान शिरीधार्य करने योग्य नहीं, वह तोड़ देने योग्य है । यहाँ तक कि सर्वज्ञ भगवन्तों ने अन्ततः कर्म को अरि यानी शत्रु तक कहा है । बल्कि मूलतः वही कहा है, और जो कर्म-बन्धन का अंतिम रूप से नाश करे, वही हमारा सर्वोपरि इष्टदेव अरिहंत कहा जाता है । 'णमो अरिहन्ताणं' : यही जिनेश्वरों द्वारा दिये गये अनादि-सिद्ध मंत्र का प्रथम पद है । उस कर्मारि को हम अपने आदिकाल से अनन्तकाल तक का चरम भाग्य विधाता कैसे मान सकते हैं ? यह तो शत्रु को ही इष्टदेव के आसन पर बैठा कर उसे पूजना हुआ। तब तो हमारे परमाराध्य अरिहंत नहीं, अरि होना चाहियेये कर्मारि। और यदि कर्म ही मनुष्य के भाग्य का अन्तिम निर्णायक हो, तो फिर उसके पुरुषार्थ का क्या मूल्य रह जाता है ? इस तरह मनुष्य की सत्ता केवल अन्धकर्म और भाग्य की चिरन्तन दास हो जाती है । पर जिनेश्वरों का धर्म ऐसा नहीं कहता । वह चरम-परम पुरुषार्थ का धर्म है। सर्वज्ञ प्रभुओं ने केवल मोक्ष को ही नहीं, धर्म, अर्थ और काम तक को पुरुषार्ष कहा है । यानी मनुष्य अपनी स्वायत्त ज्ञान-चेतना से धर्म की कालानुरूप नूतन व्याख्या कर सकता है, वह अर्थ और काम को अपने विवेक और विज्ञान के पुरुषार्थ से, अपने अभीष्ट रूप में स्वाधीन भोगने की सामर्थ्य रखता है। वह अपनी आत्म-शक्ति के स्वतन्त्र संकल्प से, अपने लिए और सर्व के लिए, सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय मांगलिक और समत्व-धर्मी विश्व-रचना कर सकता है।'
'तो फिर वर्द्धमान, आदिकाल से अनेक सर्वज्ञ तीर्थंकरों के होते भी विभिन्न मानवों के भाग्य .विषम और विसम्वादी क्यों रहे? जगत सदा ही विषम रहा । केवल व्यक्ति ही अपने चरम ज्ञानात्मक उत्थान से, अपने कर्मपार्टी का अन्तिम रूप से नाश कर के, अपना वैयक्तिक मोक्ष सिद्ध कर सके हैं। पर कोई तीर्थकर भी समुदाय के भाग्य को न बदल सका, सर्व का समान अभ्युदय न कर सका । क्या वे तीर्थंकर गलत थे, सीमित थे, असमर्थ थे ?' __ 'तीर्थंकर के गर्भ में आने के क्षण से लगा कर, मोक्ष लाभ के क्षण तक, जो आश्चर्यजनक पंच-कल्याणक के अतिशय होते हैं, क्या उनकी ओर आपका ध्यान न गया तात? इन कल्याणकों के भीतर अन्तर्निहित रूप से सक्रिय,
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