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अष्टकुलकों तक ही सीमित और सुरक्षित है। कोई भी दीन-दलित चाह कर, पीढ़ी-दर-पीढ़ी दलित-शोषित रहना नहीं चाह सकता, उसे सो भ्रमों और भुलावों में डाल कर वह रक्खा जाता है। इस विधान के अन्तर्गत उसे ऊपर उठने का कोई अवसर नहीं । शूद्रों और चाण्डालों की सन्तानों को आर्यावर्त के गुरुकुलों में शिक्षा पाने का अधिकार नहीं। उन्हें पदत्राण तक धारण करने का अधिकार नहीं। स्पष्ट है कि दीन-दुर्बल-दलित को सुव्यवस्थित रूप से वह रक्खा जाता है, ताकि उच्च कुलीन अभिजात वर्ग, पृथ्वी की श्रेष्ठ निधियों का अधिकतम संचय और निधि भोग अन्त तक करते चले जायें।'
. 'जगत और जीवन की वस्तु-स्थिति और मनुष्यों के भाग्य बदलना तो किसी शासन-तंत्र के हाथ नहीं, बेटा। मूलतः और अन्ततः तो मनुष्य अपने ही किये और बाँधे कर्मों का परिणाम है, आयुष्यमान् । स्वतंत्र-परतंत्र, ऊँचनीच, धनी-निर्धन, मनुष्य अपने ही उपार्जित कर्मों के फल-स्वरूप होता है। यह श्रेणिभेद तो प्राणियों और मानवों में आदिकाल से चला आया है, और सदा रहेगा। हमारे सर्वज्ञ तीर्थंकरों और श्रमण भगवन्तों ने भी क्या मनुष्य की स्थिति का निर्णयक कर्म को ही नहीं माना है ? . . .'
'आदिकाल से जो चला आया है, वही अनंतकाल तक चलेगा, यह सत्य नहीं, बापू। द्रव्य का परिणमन किसी चक्र में सीमित नहीं । द्रव्य में अनन्त गुण और अनन्त पर्याय सम्भव हैं। सो उसकी सम्भावनाएँ भी अनन्त हैं। जो अनन्त है, वह अनिवार्यतः विकास-प्रगतिशील होगा ही। सो अनंत रूढ़, चक्रबद्ध , और अन्तिम कैसे हो सकता है ? तब इस लोक, पदार्थ और मनुष्य का स्वरूप भी रूढ़ि और परम्परा से बद्ध और अन्तिम कैसे हो सकता है ? जो मनुष्य का भाग्यचक्र आज है, सदा वही रहेगा , ऐसा मान लेने पर वस्तु का स्वरूपगत अनंतत्व समाप्त हो जाता है। सो यह मान लेना कि जो आदिकाल से चला आया है, वही अनन्तकाल में चलता रहेगा, यह सर्वज्ञों द्वारा कथित वस्तु-स्वरूप का विरोधी है। स्थापित-स्वार्थी वर्ग, सर्वज्ञों के कथन की स्वार्थमूलक व्याख्या कर, उसकी आड़ में सदा ही ऐसा प्रमादी प्रवचन करते आये हैं।'
'तब तो मानना होगा, कि कर्म या भाग्य जैसी कोई चीज़ है ही नहीं : मनुष्य अपनी स्वाधीन इच्छा-शक्ति से अपना मनचाहा भाग्य बना सकता है । उसका जीवन किसी पूर्वाजित कर्मबन्ध के आधीन नहीं ?'
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