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झूठे राज्या, वाणिज्यों, व्यवस्थाओं और प्रतिष्ठाओं के तख्ते उलट कर, कणकण और जन-जन के स्वाधीन आत्मराज्य की स्थापना कर सके। जो जड़ीभूत, सड़ी-गली वर्तमान विश्व-व्यवस्था में आमूल-चूल अतिक्रान्ति करके, वस्तु और व्यक्ति के स्वतन्त्र सत्य के आधार पर, कोई सर्वोदयी, समवादी और सम्वादी राज और समाज रच सके, ऐसा ही चक्रवर्ती वर्द्धमान महावीर हो सकता है, महाराज ! और किसी रूढ़, पराम्परागत, ऐतिहासिक चक्रवर्तित्व की आशा आप उससे न करें, देव! करेंगे तो आप को निराश होना पड़ेगा।'
__'इतिहास से बाहर का यह चक्रवर्तित्व तो मेरी समझ में नहीं आता, बेटा ! इतिहास और लोक से परे और बाहर कौन हो सकता है ?'
'भन्ते मातामह, ज़रा इतिहास पर दृष्टिपात करें आप। उसमें आदिकाल से आज तक, राग-द्वेष, अहंकार-ममकार, जय-पराजय, मान और मानभंग के दुश्चक्रों का अन्त नहीं । उनके चलते क्या लोक में कभी कोई स्थायी सुख-शांति का राज्य स्थापित हो सका? यह चक्र विकासमान, प्रगतिशील और अभ्युदयकारी नहीं । यह चिर प्रतिक्रियाशील और प्रतिगामी है। जड़ राग-द्वेष जनित प्रतिक्रियाओं की इस अन्धी शृंखला का नाम ही इतिहास है। एक ऐसा अन्धा चक्र, जो अपने में ही घूमता है, अपने को ही दोहराता है, जो आगे नहीं जाता । लोक और इतिहास से परे जा कर, उससे ऊपर उठ कर या उसके केन्द्र में खड़ा हो कर, जो इस प्रतिक्रिया की धारा का अपने आत्मबल से प्रतिवाद करे, इसे प्रतिरोद देकर तोड़ दे; जो इतिहास की इस जड़ रूढ़ और अन्ध गतिमत्ता को छिन्न-भिन्न कर दे; वहीं इतिहास को बदल सकता है, वही लोक के हृदय में एक आमूल-चूल अतिक्रान्ति उपस्थित कर सकता है। जो देशकाल का अतिक्रमण कर, अपने पराऐतिहासिक आत्म-स्वरूप में आत्मस्थ होकर, इतिहास के इस दुश्चक्री और प्रतिगामी प्रवाह को उलट सकता है; इसे सम्वादी, समवादी और प्रगतिवादी बना सकता है : ऐसा ही लोकोत्तर पराऐतिहासिक पुरुष सच्चा इतिहास-विधाता होता है। जड़ीभूत इतिहास और लोक में जो आमूल मांगलिक क्रान्ति लाना चाहता है, उसे लोक और इतिहास से ऊपर और अलग हो ही जाना पड़ता है।'
_ 'तो अभी हाल, यहाँ, जो लोक की प्रासंगिक समस्याएँ हैं, उलझनें हैं, संघर्ष हैं, उनसे तुम्हारा कोई सरोकार नहीं, आयुष्यमान ?'
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