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परम्परा का निर्वाह भर होता है । भगवान पार्श्वनाथ के निर्ग्रथोपासक श्रावक हैं। वे । सामायिक और धर्मचर्या में ही अधिकतर लवलीन रहते हैं ।
बरसों बाद आज सवेरे अचानक ही नवम खण्ड में आ पहुँचे । पैर छूने को झुका ही था, कि स्वयम् उठा कर मुझे मेरे मर्मर के सिंहासन पर बैठा दिया । तत्काल प्रयोजन की बात कही : 'बेटा, तुम नहीं गये वैशाली, तो तुम्हारे मातामह, वैशाली के गणाधिपति चेटकराज स्वयं ही तुम से मिलने आये हैं । कब मिलना चाहोगे ?'
'अहोभाग्य मेरे !
'यहाँ आयें हम कि मंत्रणा कक्ष में आओगे ?'
'आज तीसरे पहर तात ?'
'महाराज चेटक के योग्य तो वहीं होगा । यहाँ कहाँ ? और मिलने भी मुझे ही आना चाहिये न !'
."
'साधु पुत्र !
सुख-साधन, साज-सज्जा
।
एक निगाह क्षण भर कक्ष में चहुँ ओर देखा । वैभव, से शून्य इस कक्ष को देख उनकी आँखें जैसे गुमसुम हो रहीं चलती बेर, मेरे कन्धे पर हाथ रख, गहरी दृष्टि से मेरी आँखों में | 'तो प्रस्तुत हूँ ही, तात ! '
कुछ पूछा नहीं । देख, बोले : 'बेटा,
• और क्षण मात्र
हमें तुम्हारी ज़रूरत है ! में ही वे अचल पग लौट गये ।
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'इधर बराबर ही वैशाली से रथ और सवार मुझे बुलाने को दौड़े हैं । समझ रहा हूँ, कुछ अनिवार्य मुझे वहाँ बुला रहा है । पर कहीं भी जाना-आना, बाहरी प्रसंग या पुकार से, मैं वहीं कर पाता। वह मेरा स्वभाव नहीं । अकारण, अचानक और अतिथि भाव से ही कहीं जा पाता हूँ। यहाँ से चार योजन पर जो वैशाली है, वहाँ अब तक न जा सका तो इसी वजह से, कि भीतर से कोई निर्देश नहीं मिला । आखिर मातामह को स्वयम् आना पड़ा, मेरी टोह में। तो मेरी यह कृतकृत्यता, शायद कुछ अर्थ रखती है । माँ से अनेक बार मातामह के विषय में सुना है । उच्च गुणस्थान के जिनधर्मी और सुदृढ़ व्रतनिष्ठ श्रावक हैं । उन्हीं की धर्मश्रद्धा के प्रभाव से, वैशाली में जिनेश्वरों का धर्म-शासन आज सिंहासनासीन है । वैशाली के संथागार के गुम्बद पर फहराता वृषभ-ध्वज, आज के तमाम विश्व की राज्य-पताकाओं में शिरोमणि माना जाता है । और आर्यावर्त के सारे ही शीर्षस्थ राज-कुलों में मेरी मौसियों की कोख द्वारा जिन-धर्म संचरित हुआ है । अपने उन धर्मात्मा मातामह के आज दर्शन कर सकूंगा : मेरा सौभाग्य ।
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