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'कब, कहाँ · · · ?'
'अभी, यहाँ ! '
एक टक प्रणत भाव से मैं चन्दना को देखता रह गया । चहुँ ओर से लज्जावेष्टित, वह अपने में तन्मय, मुकुलित, मौन हो रही । मौन तोड़ा पुरुष ने : 'अच्छा मौसी, तुम विवाह कब करोगी ? '
'पहले तेरा, फिर मेरा । मैं छोटी हूँ कि नहीं तुझसे ?'
'एक साथ ही हो जाए, तो क्या हर्ज़ है ? '
'मतलब
?'
'यही कि तुम करो ब्याह, तो मैं अभी तैयार हूँ।
!'
चुप रह कर चन्दना, नमित लोचन, चट्टी उँगली चबाती रही : फिर सहसा
ही बड़ी-बड़ी उज्ज्वल आँखें उचका कर बोली :
'और मानलो, मैं ब्याह करूँ ही नहीं ?
'तो मौसी, जान लो, कि मैं भी नहीं करूंगा ।'
'ये तो कोई बात न हुई ! '
'बस, यही तो एक मात्र बात है, चन्दन !
'अच्छा, वचन देती हूँ, मैं विवाह करूँगी । तू भी वचन दे ।'
'वर्द्धमान भविष्य में नहीं जीता। वह सदा वर्तमान में जीता है। इसी क्षण वह प्रस्तुत है । वह कहता नहीं, बस करता है ।'
'वर्द्धमान
!'
'चन्दन
!'
एक अभंग विराट् मौन कक्ष में जाने कब तक व्याप्त रहा । काल वहाँ अनुपस्थित था । चन्दना उठ कर खड़ी हो गयी। फिर मेरे सन्मुख निश्चल अवलोक रह गयी ।
' और अगले ही क्षण,
छू लिये ।
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'कब मिलोगे फिर ?'
उसने माथे पर आँचल ओढ़, झुक कर महावीर के चरण
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'जब चाहोगी। 'जब तुम पुकारोगी, आऊँगा ।'
और माथे पर ओढ़े पल्ले की दोनों कोरों को, चिमटी से चिबुक पर कसतीसी चन्दना धीर गति से चलती हुई, कक्ष की सीमा से निष्क्रान्त हो गई ।
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