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कैवल्य-सूर्य की पूर्वाभा
मुझे याद नहीं आता, कि पिता के और मेरे बीच कभी सम्वाद रहा हो। बचपन में उनकी बाँहों और गोदी में खेलते और दुलार पाते अपने को देखा है। लड़कपन में बेपता रहने लगा था। फिर भी कभी-कभी मेरी टोह में वे आते थे। बहुत ऊधम किये मैंने। राजोपवन का प्राणि-उद्यान ही पूरा उजाड़ दिया। पर मुझे सामने पा कर, नाराज़ न हो सके। मेरे गालों और माथे पर हाथ फेर कर इतना ही कहा : 'बेटा, यह क्या किया तुमने ?' उत्तर में केवल मैं नीरव उन्हें देखता रहा। वे मानो समझ गये, और चुप हो रहे : मानो कि मेरा उत्पात उन्हें स्वीकार है : ग़लत मैं जैसे कुछ कर ही नहीं सकता। अब युवा हो कर, जो स्वच्छन्द और ख़तरनाक़ भ्रमण पर निकल पड़ता रहा हूँ, उसकी कहानियाँ तो सारे जम्बूद्वीप और यवन समुद्रों तक फैली हैं। माँ से उन्हें सुन कर वे स्तम्भित हुए हैं, पर रोक-टोक उनके वश की बात न हो सकी। मेरे गर्भाधान की रात, माँ को जो सोलह सपने आये थे, उनका मर्म उन्हीं के मुख से तो सवेरे खुला था। उन सपनों की राह जिस बेटे को आते देखा था, उस पर प्रश्न उठाने का साहस ही उन्हें कभी नहीं हुआ। इस बीच कुल की, राज्य की, परम्परागत् धर्म और समाज की अनेक मर्यादाएँ मुझ से टूटी हैं, वे सुन कर परेशान भी हुए हैं; पर चुप रह गये। माँ से केवल इतना ही कहा : 'देखती रहो, क्या होता है। इस बेटे को क्या केवल गर्भज मान कर, इसे अपने आँचल के दूध से कातर कर सकती हो? असम्भव त्रिशला !'
माँ से ही अपने प्रति, पिता के इस रुख को जानता-सुनता रहा हूँ। उन्हीं के माध्यम और परामर्श से, वे मुझे पुत्र रूप में सुलभ और स्थापित देखने के प्रासंगिक प्रयत्न करते रहे हैं। सम्मुख वे कभी न आये : मानो उन्हें साहस ही न हुआ। इतनी ममता है उनकी मुझ पर, कि द्वितीय पुरुष के रूप में वे मुझे मानो देख ही नहीं पाते। जो, जैसा हूँ, जो भी करता हूँ, उसे अपनी ही अभिव्यक्ति समझ, अपने में बने रहते हैं। सुनता हूँ, राज्य में भी बहुत रुचि नहीं उनकी। कर्त्तव्य और
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