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अंजुली की मुद्रा-सी वहाँ बन आयी । - फिर कुछ आपे में आ कर वह बोली : ___'मान, तू ब्याह क्यों नहीं करता? अब तो बड़ा हो गया है तू। जीजी का मन कितना कातर है, तेरी इस हठ से. ! . . .
'ओ' - ‘ब्याह ? हाँ-हाँ-हाँ । लेकिन सुनो मौसी, तुम इतनी सुन्दर हो, फिर मैं ब्याह कैसे करूँ ? · . .
अन्तर्निगूढ़ लाज का एक अभ्र, चन्दना की बरोनियों में खेल गया । और चेहरे पर एक महीन रक्ताभा । सम्हल कर बोली :
'मेरे सौन्दर्य का तेरे विवाह से क्या सम्बन्ध, मान ?'
'तुम्हारा ही नहीं, मौसी, ऐसा सौन्दर्य जगत् में कहीं भी हो, तो विवाह मेरे लिए अनावश्यक है !' ..
'मतलब· · · ?' 'विवाह, तब, मेरी अन्तस्-तृप्ति को भंग करता है।'
चन्दना के मर्म में उतर कर लुप्त और गुप्त हो रही यह बात। डुबकी खा कर ऊपर आती-सी वे बोली :
'मान, मैं तो हूँ ही, कहाँ जाने वाली हूँ. . . !' 'तब मैं कहीं और क्यों बंधू ? तुम हो ही मेरे लिए, यह क्या कम है ? · . . ' 'पागल कहीं का ! बहू तो चाहिये न ।' 'नहीं, वल्लभा चाहिये मुझे।' 'समझी नहीं . . . ?' 'जो आत्मवत् लभ् हो, वही वल्लभा ।' 'सो तो बह होगी ही।' 'नहीं, वल्लभा और बात है, वैदेही !' 'तो उसे कहीं और खोजेगा क्या ?'
'खोजने नहीं जाना पड़ा । • “मुझे पता था, वही आयेगी एक दिन मेरे द्वार पर।'
'कब आयेगी?' 'आ गयी · · !'
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