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'तो ठीक है, मेरा मान तुमने रख लिया । किसी का लाड़िला तो मैं भी हो ही
सकता हूँ ! '
'पागल कहीं का बड़ी ही हूँ तुझसे। है कि नहीं ?'
! उम्र में तुझसे छोटी हूँ तो क्या हुआ ? मौसी हूँ तेरी,
'बड़ी तो तुम आदिकाल से हो मेरी । यह छत्र-छाया सदा बनाये रखना मुझ पर, तो किसी दिन इस दुनिया के लायक़ हो जाऊँगा ! '
एक टक मुझे देखती, वे ममतायित हो आयीं ।
'सुनती हूँ, जंगलों - पहाड़ों की खाक छानता फिरता है । पर न अपने से कोई सरोकार, न अपनों से । किसी से कोई ममता - माया नहीं रही क्या ?'
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'देखो न मौसी, सबसे ममता हो गई है, तो क्या करूँ । अलग से फिर किसी से ममता या सरोकार रखने को अवकाश कहाँ रह गया !'
!
'सो तो पता है मुझे, तू किसी का नहीं। अपनी जनेता माँ का ही नहीं रहा जीजी की आँखें भर-भर आती हैं
."
'तो प्रकट है कि उनका भी हूँ ही। पर उन्हीं का नहीं हूँ, सबका हूँ, तो यह तो स्वभाव है मेरा। इसमें मेरा क्या वश है, मौसी ! '
'मान ! '
आगे चन्दना से बोला न गया। डबडबायी आँखों से मुझे यों देखती रह गयीं, जैसे मैं अगम्य हूँ । पर उनकी वे आँखें भी कहाँ गम्य थीं !
'तुझे अपने से ही सरोकार नहीं रहा, तब औरों की क्या बात !' 'तुम हो न ! फिर मुझे अपनी क्या चिन्ता ?' 'मेरी और किसी की भी चिन्ता का, तेरे मन क्या मूल्य है, मान ?'
'मूल्य यह क्या कम है, कि तुम हो मेरे लिए ! '
'सो तो देख रही हूँ।
'जैसे' ·?'
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यह हाल जो तुमने बना रक्खा है अपना !
'इस कक्ष में कोई शैया तो दीखती नहीं । पता नहीं कहाँ सोते हो ? सोते भी हो कि नहीं ?"
'शैया तो, मौसी, जहाँ सोना चाहता हूँ, हो जाती है । कोई एक खास शैया हो , तो सोना भी पराधीन हो जाए। सोना तो मुक्ति के लिए होता है न ! पराधीन शैया मेरी कैसे हो सकती है
?'
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