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________________ १८८ 'तो ठीक है, मेरा मान तुमने रख लिया । किसी का लाड़िला तो मैं भी हो ही सकता हूँ ! ' 'पागल कहीं का बड़ी ही हूँ तुझसे। है कि नहीं ?' ! उम्र में तुझसे छोटी हूँ तो क्या हुआ ? मौसी हूँ तेरी, 'बड़ी तो तुम आदिकाल से हो मेरी । यह छत्र-छाया सदा बनाये रखना मुझ पर, तो किसी दिन इस दुनिया के लायक़ हो जाऊँगा ! ' एक टक मुझे देखती, वे ममतायित हो आयीं । 'सुनती हूँ, जंगलों - पहाड़ों की खाक छानता फिरता है । पर न अपने से कोई सरोकार, न अपनों से । किसी से कोई ममता - माया नहीं रही क्या ?' 1 'देखो न मौसी, सबसे ममता हो गई है, तो क्या करूँ । अलग से फिर किसी से ममता या सरोकार रखने को अवकाश कहाँ रह गया !' ! 'सो तो पता है मुझे, तू किसी का नहीं। अपनी जनेता माँ का ही नहीं रहा जीजी की आँखें भर-भर आती हैं ." 'तो प्रकट है कि उनका भी हूँ ही। पर उन्हीं का नहीं हूँ, सबका हूँ, तो यह तो स्वभाव है मेरा। इसमें मेरा क्या वश है, मौसी ! ' 'मान ! ' आगे चन्दना से बोला न गया। डबडबायी आँखों से मुझे यों देखती रह गयीं, जैसे मैं अगम्य हूँ । पर उनकी वे आँखें भी कहाँ गम्य थीं ! 'तुझे अपने से ही सरोकार नहीं रहा, तब औरों की क्या बात !' 'तुम हो न ! फिर मुझे अपनी क्या चिन्ता ?' 'मेरी और किसी की भी चिन्ता का, तेरे मन क्या मूल्य है, मान ?' 'मूल्य यह क्या कम है, कि तुम हो मेरे लिए ! ' 'सो तो देख रही हूँ। 'जैसे' ·?' Jain Educationa International यह हाल जो तुमने बना रक्खा है अपना ! 'इस कक्ष में कोई शैया तो दीखती नहीं । पता नहीं कहाँ सोते हो ? सोते भी हो कि नहीं ?" 'शैया तो, मौसी, जहाँ सोना चाहता हूँ, हो जाती है । कोई एक खास शैया हो , तो सोना भी पराधीन हो जाए। सोना तो मुक्ति के लिए होता है न ! पराधीन शैया मेरी कैसे हो सकती है ?' For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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