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________________ •?? 'पूछती हूँ, कहाँ सोता है' 'देख तो रही हो, यह मर्मर का उज्ज्वल सिंहासन, जिस पर बैठा हूँ । महावीर का सोना अपने सिंहासन पर ही हो सकता है ! तो क्या तुम खुश नहीं हो इससे ?' 'न गद्दा, न उपधान ! इस सीतलपाटी 'इस ठण्डे शिला - तल्प पर ? पर ? ठीक है न ?' १८९ 'गद्दे पर सोऊँ, तो अपने ही मार्दव मी मुझे बहुत ठण्डी लगती है, मौसी ! काफी है । 'स्वाधीन !' से वंचित हो जाऊँ' । गद्दे की नरमी और अपनी ही नरमी और गरमी मेरे लिए 'ठीक है, तब उपधान का तो प्रश्न ही कहाँ उठता है ? ' 'रूई, रेशम और परों के उपधान मुझे सहारा नहीं दे पाते, मोसी । प्रिया की गोद हो, या फिर उसकी बाहुएँ ! • जड़ उपधान पर क्या सर ढालना ! ' चन्दना को बरबस ही हंसी आ गयी । कुछ आश्वस्त होती-सी वे बोलीं : 'तो क्या वह प्रिया रात को आसमान से उतर आती है ? ' Jain Educationa International 'यह मेरी बाहु देखो, मौसी ! किस कामिनी की बाँह इससे अधिक कोमल और कमनीय होगी ? अपनी प्रिया को अपनी इस बाँह से अलग तो मैं कभी रखता नहीं । जब चाहूँ, वह मेरे सोने को गोद, या बाँह ढाल देती है । मुझ से अन्य कोई भी प्रिया, पहले अपने मन की होगी, फिर मेरी । उसका मन न हो, तो अपना मन मारना पड़े । उसके भरोसे रहूँ, तो ठीक से सोना या चैन नसीब ही न हो ·!' सामने स्फटिक के भद्रासन पर बैठी चन्दना के चेहरे पर एक गहरी जल-भरी बदली-सी छा गयी । मेरे सामने देखना उसे दूभर हो गया । उसकी झुकी आँखों ने सहसा ही तैर कर अपनी पद्मिनी बाहुओं को एक निगाह देखा । अपने ही जानुओं में सिमटी गोद को निहारा । 'तो फिर मेरी क्या ज़रूरत तुझे ?' उस आवाज़ में जल - कम्पन-सा था । वहाँ मुद्रित, मुकुलित उस कमलिनी का समग्र बोध पाया मैंने । 'ओह चन्दन, 'तुम कितनी सुन्दर हो ! 'मुझे पता न था !' चन्दना की पलकें मुंद गयीं । एक अथाह शून्य हमारे बीच व्याप गया । जानू पर ढलकी हथेली पर अँगूठे और मध्यमा उँगली के पौर जुड़ कर एक For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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