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- हाँ, माँ से सुनता रहा हूँ, सबसे छोटी चन्दन मौसी हैं, वैशाली में । कि स्वभाव में वे ठीक मेरी सगी बहन हैं। न किसी ने खास मेल-जोल, न बोल-चाल । बस, अपने में अकेली, और बेपता रहती हैं। और यह भी कि मुझे बहुत याद करती हैं । नहीं तो किसी को याद करना उनकी आदत में नहीं । अहोभाग्य मेरा !
• . अचानक ही क्या देखता हूँ कि हिमवान की कोई अगोचर चूड़ा, जैसे नन्द्यावर्त की छत पर, निर्झरी-सी चली आ रही है। नीली-उजली-सी एक इकहरी लड़की । हलके पद्मराग अंशुक के कौशेय में, वैदिक ऋषि की उषा को जैसे यहाँ महमा प्रकट देखा । एकत्रित घना केश-पाश, जरा बंकिम ग्रीवा के एक ओर से पूरा वक्षदेश को अतिक्रान्त करता, चरण चूमने को आकुल है ।
• - पूरा आसपास मानो बदली-बदली निगाहों से देख उठा । . . 'आओ चन्दन मौसी, वर्द्धमान प्रणाम करता है। 'अरे वर्द्धन, कितना बड़ा हो गया रे ! पहली बार तुझे देख रही हूँ।' 'और मैं भी तो तुम्हें पहली बार देख रहा हूँ, मौसी !' _ 'सो तो है ही । तुझे तो हमारी पड़ी नहीं । वैशाली जैसे तीन लोक से पार हो कहीं · · !'
'तुम वहाँ रहती हो, तो है ही · · !'
'मेरी बात छोड़, पर अपनों में, परिवारों में कभी कहीं दीखा है तू ? कितना तरसते हैं सब तुझे देखने को । मगध, उज्जयिनी, कौशांबी, चम्पा, सौवीर में जाने कितने उत्सव-विवाह प्रसंग आये होंगे । पैर तेरे दर्शन दुर्लभ । अपनों से, आत्मीयों मे तुझे तनिक भी ममता नहीं क्या ?'
हाँ-हाँ, है क्यों नहीं । सब ओर स्वजन, परिवार ही तो हैं, मौसी । और उत्सव भी, देखो न, सदा चारों ओर है । अब अलग-अलग कहाँ-कहाँ जाऊँ. . . !
'और सुनता हूँ मौसी, तुम भी तो खास कहीं जाती-आती नहीं। आरोपी में अकेला नहीं हूँ. . . !'
· देख न, मैं आयी हूँ कि नहीं !' 'सो तो देख रहा हूँ । मेरे पास आयी हो न, मेरा अहोभाग्य ! लेकिन और भी सब जगह जाती हो क्या ?'
'वैशाली में ही आ जाती हैं मेरी सारी दीदियाँ । छोटी हूँ न, सबकी लाड़ली, मो मेरा मान रख लेती हैं. · · !'
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