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जब पुकारोगी, आऊंगा
जब से नन्द्यावर्त महल के इस नवम खण्ड में आ बसा हूँ, माँ के दर्शन नहीं हुए । शायद वे मुझ से नाराज़ हों। उनका चाहा मैं न कर सका। मेरा दुर्भाग्य । आर्यावर्त के राजकुलों की चुनिन्दा सुन्दरियाँ वे मेरे लिए लायीं, पर मैं उनमें से एक को भी न चुन सका। इस या उस बाला को चुनें, तो शेष की अवज्ञा होती ही। यह मेरे वश का नहीं था : क्योंकि मैं उन सब को निःशेष ही ले सकता था। और कई दिन साथ रह कर, वह सुख उन्होंने मुझे दिया ही। मैं संपूरित हुआ। उन सब का कितना कृतज्ञ हूँ !
विशिष्ट का चुनाव जो मैं न कर पाया, यह मेरी ही मर्यादा रही : या कह लीजे अ-मर्यादा । उनमें तो कोई कमी थी नहीं। कमी मेरी ही रही कि मैं विवाह के योग्य अपने को सिद्ध न कर सका। विवाह से परे वे मुझे पा सकीं या नहीं, तो वे जानें । मैं, बेशक , उन सब को इतना समग्र पा गया, कि विवाह के द्वारा उस सम्पूर्ण प्राप्ति को खंडित करने को जी न चाहा । · ·और जब वे गयीं, तो निराश या निष्फल तो रंच भी नहीं दीखीं। लगा था, जैसे भरीपूरी जा रही हैं। और मेरे मन में भी कहीं ऐसा बोध किंचित् भी नहीं है, कि वे लौट कर चली गयी हैं।
पर पता चला है, कि इन दिनों वैनतेयी की साल-सम्भाल में मां स्वयम् ही लगी रहती हैं। मुझ पर से हट कर, उनका सारा लाड़-दुलार उस संकर दासी-पुत्री पर केन्द्रित हो गया है; क्योंकि वह शाश्वत कौमार्य-व्रती बाला मेरे प्रति समर्पित है। जान पड़ता है, जो मैं उन्हें न दे पाया, उसे वैना से वे पा गयी हैं। इससे बहुत राहत महसूस होती है।
· · आज सवेरे सहसा ही माँ द्वार में खड़ी दिखायी पड़ीं। उनका यह अतिथि रूप अपूर्व सुन्दर और प्रियंकर लगा। मैं देखता ही रह गया । ऐसा भूला उस रूप
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