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तमाम वस्तुएँ इसी एकमेव में से निष्पन्न, परस्परापेक्षी, स्वधा, स्व-संचालित हैं। अपने में स्वधा और स्वयम्भ हो कर भी, वे उस परम एक में से ही उद्भूत हैं । देख रहे हो न, अभेद महासत्ता और भेदात्मक अवान्तर सत्ता तक ये पहुंच गये। यानी अनेकान्त इनके चिन्तन में स्पष्ट झलकता है । ब्रह्मनस्पति ने स्पष्ट कहा : 'एकम् सद विप्रा बहुधा वदन्ति'। फिर 'अमर्यो म]न सहयोनिः' कह कर इन्होंने सत्ता की द्रव्यार्थिक अनश्वरता और पर्यायिक नश्वरता को भी ठीक पकड़ लिया। आगे बढ़ने पर हिरण्यगर्भ भगवत्ता से भावित दीखते हैं। किस परात्पर, परमतम को पूजें ? 'कस्मै देवाय हविष्या विधेम् ?' प्रजापति की भौतिक देवमूर्ति काफी नहीं दीखी। उससे परे , पराभौतिक परमात्मा की ओर खोज बढ़ रही है। लेकिन विश्वकर्मा फिर चक्र में लौट कर, मूर्त जगत के उद्गम में, मूर्त आधार खोजते हैं। किस वृक्ष-वन में से विश्व आकृत हुआ ? और फिर नीचे को अपने में समेट कर ऊपर की ओर लौट कर, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, एकमेव ईश्वर पर पहुंचते हैं । वह अदृश्य है, इन्द्रियातीत है । बीच का जगत, उन्हीं से उत्पन्न जगत, उनके हमारे बीच माया का आवरण है । जगदीश्वर जगत-स्वरूप भी है, उससे अतीत भी। देखा न, सत्ता अनैकान्तिक ही हाथ आई यहाँ भी । द्वैत भी, अद्वैत भी। नित्य भी, अनित्य भी । मूल द्रव्य में अमर्त्य भी, पर्याय में मर्त्य भी।
'सोमेश्वर, इसी बिन्दु पर मानव का दर्शन-ज्ञान अन्तर्मुख हो गया : पराभीतिक अध्यात्म का सूत्रपात हुआ। यह वैदिक युग का अन्तिम चरण है। इसके ठीक बाद एक संक्रान्तिकाल आता है। ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था भंग हो गई । विविध कुलों में रक्त-मिश्रण हुआ। एक प्रचण्ड प्रतिवादी शक्ति यहाँ सक्रिय दीखती है। जिस में से महाक्रान्ति होती है । एक ओर रक्तशुद्धि, वर्णशुद्धि के आग्रही ब्राह्मण प्रतिगामी हो कर, सत्ता और लालसा से प्रमत्त हुए। पुरोहितों ने वेदों पर ब्राह्मण रच कर अपने स्वार्थों के पोषक कर्मकाण्डी यज्ञों के विधान किये । यह ब्राह्मणत्व के पतन और अराजकता का युग है। इसके संघर्षण में से ज्ञान की प्रगतिशील विद्रोही प्रतिवादी शक्तियाँ उदय में आयीं । प्रबुद्ध ऋषियों ने रक्त-शुद्धी की मिथ्या मर्यादाएँ झंझोड़ कर तोड़ दीं । चाण्डाल, शूद्र और दासी स्त्रियों में भी उन्होंने सन्ताने उत्पन्न की। ये संकर सन्तानें मौलिक ज्ञान के धुरन्धर सूर्यों की तरह उदय हुईं । आत्म-ज्ञान की एकाग्र जिज्ञासा के फलस्वरूप, मनुष्य का विकास, सामुदायिक से वैयक्तिक चेतना-स्तर पर संक्रान्त हुआ। इस वेदोत्तर आध्यात्मिक चेतना का आदि पुरस्कर्ता हुआ महीदास ऐतरेय । ब्राह्मण ऋषि की सवर्णी से इतर, यानी 'इतरा' शूद्र पत्नी की कोख से जन्मा यह पुत्र, सवर्णी पत्नियों से जन्मे शुद्ध ब्राह्मण-पुत्रों के समक्ष, पिता द्वारा उपेक्षित, अपमानित हुआ। इसी घायल आत्माभिमान के ज़ख्म में से आगामी उपनिषद् युग के अपराजेय आदित्य की तरह उदय हुआ महीदास ऐतरेय । मैं कौन
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