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सन्मख होकर ही तो वह सम्पूर्ति सम्भव है। ब्रह्मचर्य और किसे कहते हैं ? तुम ब्रह्म हो, तो नारी उसकी चर्या है, कहें कि ब्रह्म की चर्या उसी में हो कर सम्भव है। वह तुम्हारे ब्रह्मचर्य की भूमि और कसौटी एक साथ है। जब तक नारी तुम्हारी दृष्टि में अन्य है, द्वितीय पुरुष है, तब तक ब्रह्मचर्य नहीं. अब्रह्मचर्य ही बना रहता है। इसी से कहता हूँ, जब तक उससे बचोगे, वह बाधा ही बनी रहेगी। तब एकमेव ब्रह्म में चर्या और मिलन कैसे सम्भव होगा ?'
'बचता हूँ, ऐसा तो नहीं लगता। जब तक नारी बाहर है, वह पर और इतर ही नहीं है क्या ? और भीतर क्या उसे बाहर की राह लिया जा सकेगा? ऐसा हो, तो फिर अब्रह्म भोग किसे कहेंगे ?'
'सुनो सोम, उस अनन्य एक पर निगाह रहे, तो बाहर की नारी में अन्य और पर देखने की भ्रान्ति ही पैदा न हो। वह भ्रान्ति बनी हुई है, कि ब्रह्मचर्य भंग हुआ है। उसे अ-पर और उत्तरांशिनी देखो, अर्धांगिनी देखो, तो लिंगभेद टूटेगा और मिलन अनायास होता रहेगा। सन्मख होकर ही तो वह मिलन और सम्पूर्ति सम्भव है । विमुख रहकर, विरह और अन्तहीन वासना के सिवाय और क्या पाओगे?'
'. . माँ का वह अनदेखा चेहरा मुझे भीतर खींचता है, मान ! बाहर का हर स्त्री-मुख उस विरह को उभार देता है। · ·और मैं भीतर के अतल में जैसे माँ को टोहता चला जाता हूँ। . . ' ___ 'बाहर के हर स्त्री-मुख से शंकित और भयभीत हो कर ही न ?-कि नहीं, . . . यह अन्य है. अनन्य मेरी नहीं। · · ठीक कहता हूँ न ?' ___वर्द्धमान, अ-ठीक तो तुम कभी भी कहते ही नहीं। मेरी गोपन से गोपन पीड़ा में, जैसे सहभागी हो तुम । · · ·आश्चर्य !' ___'सुनो सोम, एक लड़की से मिलोगे? यहीं है वह, अभी आती ही होगी। . . लो, वह चली तो आ रही है. . . !'
गुलाबी उषा के रंग का उत्तरासंग धारण किये, नीली लहर-सी सहज वैनतेयी चली आ रही है।
'आओ कल्याणी, प्रत्याशित थीं तुम । ठीक म हुर्त-क्षण में आई। · · इनसे मिलो, ये मेरे मित्र सोमेश्वर याज्ञवल्की । आचूड़ कवि हैं। सो तो तुम देख ही रही हो, यह भाव-मूर्ति । ब्राह्मण-ओजस्क और क्षत्रिय-रजस्क हैं ये, कहो कि
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