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१५८
'किस लिए वैनतेयी ?'
'क्यों पूछते हो ?
'वर्द्धमान का हाल तो तुम देख ही रही हो ?'
'सो तो देख रही हूँ, देव ।'
'क्या चाहती हो, उससे ? '
क्षणैक चुप हो रही वह । अपने भीतर डूब कर, जैसे निःशेष हो गई ! 'बोलो, क्या चाहती हो मुझ से, शुभे ?"
'!'
'कुछ नहीं'
'तो अनचाहे ही, तुम्हारी हर चाह पूरी होगी ! '
'वे सब तो गईं। मुझे भी जाना होगा ?'
'वैनतेयी क्यों जायेगी ? वह शाश्वती कुमारी है !'
'मेरे परित्राता आ गये ? '
'सो तो तुम जानो !
'कैसे स्वामी के योग्य हो सकती हूँ ? क्या आदेश हे वैना के लिए ?" 'अपनी हर इच्छा की स्वामिनी होकर, नंद्यावर्त में रहो !' 'स्वामी' ·!'
'और सुनो वैना, एक रहस्य जान लो । काम, गरुड़, शिव सब तुम्हारी अन्तर्वासिनी आत्मा ही हैं । भिन्न-भिन्न अन्य कोई नहीं । तुम स्वयम् तद्रूप हो । इसी भाव में निरन्तर रहो ।'
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'दासी को अपनी सेवा में नियुक्त करो, देवता ! '
'दासी ? छी: फिर भूल कर यह शब्द कभी भी मुँह पर न लाना । स्वामिनी होकर रहो अपनी, सो मेरी भी ।'
'मैं दासी पुत्री हूँ न नाथ, और उज्जयिनी के दासी- पण्य से क्रीता मैं शिवादेवी की दासी । इसे क्या कहोगे ? इसका कोई निवारण ?'
'निवारण ? यही कि वर्द्धमान ने तुम्हें स्वामिनी स्वीकारा । वह पृथ्वी पर से मानव के मूलगत दासत्व का उच्छेद करने आया है। ताकि मनुज ही क्यों, कणकण स्वाधीन हो । अणु-अणु अपना स्वामी हो कर रहे ।'
'आज्ञा दो, मैं कहाँ रहूँ ? कैसे तुम्हारा प्रिय करूँ ?'
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