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'संकर कन्या हो ? बहुत अच्छा । तब तो शंकरी हो, वैना । शान्ति और सन्धी हो तुम, मानव-कुल की !'
'यह तो आर्य-पुत्र का अनुगृह है !'
'वर्द्धमान कुलजात आर्य नहीं, आत्मजात आर्य है । वह तुम्हारे विशेष परिचय का प्रार्थी है।'
वैनतेयी, जुड़े जानु-युगल मोड़े, फर्श पर ईषत् झुकी कमलिनी-सी बैठी है । परिचय की पृच्छा पर वह मौन रही और नम्रीभूत हो कर, अपने में सिमटी जा रही है।
'मुक्त होओ, कल्याणी। और ग्रंथियाँ तोड़ कर, अपना हृदय खोलो। तुम्हारा परिचय पाकर धन्य होना चाहता हूँ।' ___'मेरी माँ एक सुन्दर यवन कुमारी थी। पर वह दासी थी। एक भारतीय व्यापारी सार्थ के साथ एथेंस से दक्षिणापथ के एक पत्तन पर आई थी। • पांचाल के ब्राह्मण श्रेष्ठ चक्रपाणि कात्यायन दक्षिण के अरुणाचलम् में गारुड़ी साधना कर रहे थे, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए। माँ को सामने पा कर उन्हें लगा, कि उनकी अधिष्ठात्री आ गई !'
'क्या नाम था तुम्हारी मां का, वैना ?' 'इफ़ीजीनिया !' 'जीनिया से जन्मी तुम, नवमानव की जनेत्री ! फिर · · · ?'
'मां एथेंस को कभी भी भूल न सकीं। पर ब्राह्मण पति में उन्हें सूर्य देवता अपोलो का दर्शन होता था। पति की साधना-संगिनी हो कर रहीं वे । पर अधिक जीवित न रह सकीं। मैं सात वर्ष की थी. • तब वे हमें छोड़ कर चली गईं...' ___ वैना का कण्ठावरोध हो गया। उसकी आँखों में एक नदी डबडबा आई । क्षणक चुप रह कर फिर मैंने कहा :
'मेरी ओर देखो, वैना, मैं हूँ न ! जी खोलो !' 'माँ वेनिस की तरह सुन्दर थीं. · · । झलक भर याद है उनकी ।' 'मो तो यह सन्मुख चेहरा साक्षी है ! फिर वैना ?'
'साधक पिता समुद्र की तरह गम्भीर थे। वाडव अग्नि की तरह, अपनी वेदना को तह में समेटे रहे । निश्चल साधना करते रहे । मैं उनकी सेवा में निरत रहती।' - 'चक्रपाणि को सिद्धि मिली ?'
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