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पर यह अदिति पृथ्वी के पार, आकाश-बद्ध, दिशा-बद्ध : क्षितिज के अन्तहीन विस्तार में से उत्तानपाद द्वारा जन्मी है अदिति : अनन्त होकर भी वह है सान्त, सान्त हो कर भी वह है अनन्त । - • पर क्या अनुभव्य से परे और कुछ नहीं ? · · · अनुभव मनस् में है : मनस् ही प्रजापति, विधाता भगवान : मनस् में से ही सब कुछ आविर्मान।
· · 'फिर लौटे दीर्घतमस, बोले : नहीं जानता अपना सत्य : मैं हूँ बन्धन-ग्रस्त, भटक रहा अपने ही मनस के अँधेरों में : कदाचित् वह आदि तत्व है कोई अजन्मा, एकमेव, अखण्ड, रहसिल, स्वधा, स्वनिर्भर, अमर
___ जो सदा रहेगा अगम्य अज्ञेय रहस्य ही : उसी एक अगम, अज्ञेय, अनिर्वच को
कई सद्विप्र बहुधा कहते हैं : मूल में वह है अमत्यं, तूल में वही है मत्यं : मत्यं-अमत्यं दोनों ही हैं सहयोनि, सहजात : मूल में वही है अक्रिय, प्रकट में वही है सक्रिय : एक विश्व-वृक्ष पर दो पंछी : एक फल खाता है, दूसरा नहीं खाता, केवल करता है चिन्तन चुपचाप :
शायद वही तो हूँ मैं आप . . .
· · 'हिरण्यगर्म हुए भावाकुल : अपने से परे वह कौन, जिसे जानकर जानूं मैं अपने को ?
मेरा आधार कौन ? मेरा सृजनहार कौन ? प्रजापति से परे कौन ? : 'कस्मै देवाय हविष्या विधेम् ?' : • • 'जल से ऊष्मा, ऊष्मा से अग्नि, अग्नि से सूर्य, सूर्य से अग्निः दक्षा से अदिति, अदिति से दक्षा, अदिति से आदित्य-- सुवर्ण-बीज, अग्निगर्भ, हिरण्यगर्भ, सुपर्ण-बीज ! · · 'किन्तु इससे भी परे कौन तुप ? • • ‘कस्मै देवाय ?
- 'हाय रे चित्त को नहीं चैन, नहीं समाधान !• • •
· · तब आये विश्वकर्मा : उनकी दृष्टि शिल्प-चेतस् थी : पूछा उन्होंने : किस वृक्ष-वन में से यह विश्व
हुआ है शिल्पित, आकृत, मूर्तिमान ?
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