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बोले कि मूल स्रोत ईश्वर है, वही है प्रथम और अन्तिम ; वही है आदि सत्ता, वही है अस्ति: वही आदि वृक्ष-वन : यह सारा विश्व उसका पल्लवन : वही एक -एव, वही अज, वही शक्ति-मनस्, वही सर्जक, विसर्जक सर्वोच्च सत्ता, वही संज्ञक, सूचक, व्याख्याता, परिवर्त्ता : उसका यह नाना रूपात्मक सृजन ही उसका आवरण
माया का आल-जाल
हृदय के गह्न में लीन होकर, सर्व में करो एकात्म बोध करो उस परमतम एकत्व का साक्षात्कार
प्रश्न नहीं हो सका समाप्त । और आगे बढ़ा
मैं कौन ? 'वह कौन ? माना यह विश्वतत्व है ज्ञेय,
पर इसका ज्ञाता-यह मैं कौन ? :
इसके और मेरे बीच यह कैसी अनन्त विरह - रात्रि का प्रसार ?
अज्ञात, अज्ञेय, अनादि, अनन्त कह कर,
हाय, नहीं रे मेरे प्राणों के प्राण की वेदना से निस्तार !
'यज्ञ की वेदी पर यूप से बंधा मैं शुनःशेप,
हाय, मैं आॠन्द कर पुकार रहा : 'अरे कौन है देवों में ऐसा सामर्थ्यवान,
जो उस गोचर अनुभव्य, फिर भी अनन्त अदिति मां की गोद में लौटा दे मुझे, जिससे मैं जन्मा हूँ : जो मेरा उद्गम भी, विस्तार भी ; जो मेरा अनन्त भी, सान्त भी :
ओ माँ अदिति, तुम्हें कहाँ खोजूं मैं ?
'नचिकेतस्, अमर हुए तुम ब्रह्म-परिनिर्वाण में ? पता नहीं, मृत्यु से पार किसने देखा है तुम्हारा अमर - लोक ?
याज्ञवल्क्य को गार्गी नहीं, मैत्रेयी अभीष्ट है । पर क्या वे उस पर रुक सके ?
'मैत्रेयी तुम कहाँ चली गयीं? मेरी एकमेव मित्रा !
कहाँ हो तुम, ओ अदिति, आत्म-रूपा, अनन्त-रूपा ? 'तुम नहीं, तो मैं नहीं !
तुम्हें देखे बिना जाने बिना, अपने को जानना सम्भव नहीं, और अपने को न पहचानूं, तो जीना सम्भव नहीं
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