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'उबुद्ध हुआ, महावीर ! तुम अजीब हो । इतने खुले और मुक्त हो, कि कहीं कोई शब्द या भाव का घेरा तुम पर नहीं। जब जो जी चाहता है मेरा, वही तुम हो जाते हो मेरे लिए। मेरे हर प्रश्न के मनचाहे उत्तर तुम, अद्वितीय । तुम्हारी बातों से, बड़ी सुरक्षा और ऊष्मा महसूस हो रही है।'
तो मेरा होना कृतार्थ, सोम ! लेकिन माँ को जो तुमने नहीं देखा, नहीं पाया, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। सहायक है। तूलगत उस वियोग में से, मूलगत योग सम्भव है। यह विरहानुभूति, हर किसी छोटे छोर पर तुम्हें अटकने नहीं देगी। मनन्त हो कर ही चैन पाओगे ।'
'क्या सोचते हो वर्द्धमान, याज्ञवल्क्य समाधिस्थ हुए, सम्पूर्ण हुए ?'
'निश्चय । योगीश्वर थे याज्ञवल्क्य ! अधमर्षण से आरुणी उद्दालक तक सारे ऋषि, मनीषी थे, चिन्तक थे, द्रष्टा थे। याज्ञवल्क्य साक्षात्कारी योगी थे । इसी से ने किसी एकान्त पर नहीं अटके । वे अनेकान्त-पुरुष हैं। वेद और उपनिषद् के सारे ही ऋषियों का चिन्तन्, उनके दर्शन में समन्वित हुआ। सब को यथा स्थान, सापेक्ष भाव से उन्होंने स्वीकारा।'
'योग से तुम्हारा मतलब . . . ?'
'विकल्पात्मक, क्रमिक चिन्तन नहीं । आत्म-ध्यान में एकाग्र, अविकल्प वस्तुसाक्षात्कार । सकल चराचर वस्तु-जगत को उन्होंने अपने आत्म-ज्ञान के प्रकाश में, प्रत्यक्ष परिणमनशील देखा । वस्तु के अनन्त स्वरूप के साथ, वे देश-काल के भेद से परे तद्रूप हो गये । देखना, सोचना समाप्त हो गया। जो है, वह प्रतिपल अनुभव्य, भोग्य, संवेद्य हो गया।'
'उन्होंने एक नहीं, दो स्त्रियों के साथ विवाह किया, योगी हो कर ! स्त्री की उन्हें अपेक्षा थी, नहीं ?' ___ 'थी और नहीं भी । उनकी पत्नियां उनके योग में साधक ही हुई, बाधक नहीं। अल्पज्ञा कात्यायनी उनकी भार्या हो रही : उनकी देह का भार उसने वहन किया। विज्ञा मैत्रेयी उनकी जाया हो रही, उनकी प्रज्ञा उसमें प्रकट हुई। शिल्पित और साकार हुई । जो पूर्ण योगी है, वह विधि-निषेध से बाधित नहीं । अपनी आन्तरिक आवश्यकतानुसार वह जो चाहे ले, जो चाहे न ले । वह स्वाधीन होता है, अपने काम में भी, कामना में भी । क्योंकि वह अपना स्वामी होता है।'
'तो क्या याज्ञवल्क्य जन्मना योगी थे ?'
'निश्चय ! नहीं तो ऐसे पूर्णत्व की सिद्धि एक जन्म में सम्भव न होती । और जिसने जड़ गुरु-परम्परा तोड़ कर, सीधे सूर्य से शुक्ल यजुर्वेद विद्या प्राप्त की, वह तो जन्मजात योगी था ही।'
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