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अलबत्तः कुछ ब्राह्मण पुत्र या फिर शूद्र अनार्य और संकर युवा मुझ से अधिक आकृष्ट हैं । श्रोत्रियों को मैं प्रसन्न न कर सका, क्योंकि उनके याज्ञिक विधिविधानों और कर्मकाण्डों को मुझ से समर्थन न मिल सका। बल्कि उन्होंने मेरी भृकुटियाँ तनी और विप्लवी देखीं। तो सहमे और मुझे ख़तरनाक़ मानने लगे हैं ।
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लेकिन ब्रह्म-विद्योपासक, कई ब्राह्मण-पुत्र मुझ से प्रसन्न और आकृष्ट हैं। क्योंकि वे सतत खोजी और प्रगतिशील हैं । वे मेरे पास खिंच कर आते हैं । क्योंकि ब्राह्मण और क्षत्रिय की सीमाएँ मुझ में टूटी हैं और दोनों मुझ में मिल कर, कोई तीसरा आयाम मुझ में खुला है, जिसकी उन्हें खोज है । अन्त्यज और संकर भी इसी से मेरे प्रेमी हैं; क्योंकि उनके चिर तिरस्कृत अस्तित्व को मैंने पूर्ण स्वीकृति दी है, और क्षत्रिय- श्रेष्ठ इक्ष्वाकु लिच्छवि कुल का एक राजपुत्र उन्हें मित्र और सखा की तरह समकक्ष सुलभ है ।
वैश्य जैन श्रेष्ठी मुझ से नाराज हैं, क्योंकि मेरे कुलजात जैनत्व से आकृष्ट - होकर ही वें मेरे पास आये थे, पर जैनत्व का कोई पक्षपात उन्हें मुझ से न मिल सका। उनकी अतुल सम्पत्ति, वैभव, उनके अमूल्य रत्नाभरण मुझे किंचित् भी प्रभावित न कर सके, यह उन्हें विचित्र लगा | उनके चैत्यों के अकूत रत्न-निर्मित जिनबिम्बों के दर्शन करने तक की उत्सुकता मैंने नहीं दिखायी । वे अचम्भित और क्षुब्ध हैं यह देख कर । उन्हें मेरे प्रेम में दिलचस्पी नहीं; मेरा जैनत्व और राजत्व ही उनका प्रेय है । वह बंधा - बँधाया उन्हें मुझ में न मिला। सो सर्वाश्विक निराश मुझ से वही हुए हैं ।
एक ब्राह्मण युवक सोमेश्वर, मुझ से विशेष संलग्न हो गया है । दूर से वह मुझे कोई पलातक, रत्नदीपों में खोया, स्वप्निल राजपुत्र ही अधिक समझता था । क्योंकि मेरी विचित्र यात्राओं, और नितान्त एकाकी जीवन की अजीब कहानियाँ उसने सुन रक्खी थीं। पर इधर मेरे लोक भ्रमण में, मर्यादा भंजन की जो जो भंगिमा उसने सुनी, तो वह मेरी तरफ़ बेतहाशा खिचा । बहुत संकोच और पूर्वाग्रह लेकर पहली बार आया था, डरते-डरते । मगर पास आकर, थोड़ी देर में ही उसकी ग्रंथियाँ यों गल गईं कि, कहे बिना न रह सका कि वर्द्धमान, मुझे एक तुम्हारी ही तो तलाश थी । मैं उसके मुग्ध और विभोर भाव को देखता रह गया । एक ही तो ऐसा पुरुष और मित्र पहली बार मेरे सामने आया है ।
सोमेश्वर पितृपक्ष में याज्ञवल्की शाखा का ब्राह्मण है । पर माँ उसकी क्षत्राणी थी । पिता रोहिताश्व आन्तर अग्निहोत्र के साधक, दुर्दान्त ब्रह्मचारी थे । ऊर्ध्वरेतस् तेज से जाज्वल्यमान । याज्ञवल्क्य से भी आगे जाकर, नचिकेतस् के आराधक । पर बढ़ती हुई क्षत्रिय प्रभुता को देख कर और क्षत्रियों को
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