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'अब तो तुझे सारे राजप्रांगण में घूमने की छुट्टी मिल गई, मान। अभी कहाँ से आ रहा है?'
'सुनो माँ, तुम कहती हो न, बाघ बन का राजा होता है ?' 'सो तो है ही !' 'तुम्हारा प्राणी-उद्यान देखा आज।' 'कितने तरह-तरह के, देश-देश के प्राणी हैं। अच्छा लगा न तुझे ?'
'अच्छा नहीं लगा, माँ । बन के राजा बाघ को तुमने पिंजड़े में डाल दिया है वह तो पर्वत की चोटियों पर छलांगें भरता है : वहीं वह अच्छा लगता है।'
'अच्छा, और क्या देखा, मानू ?'
'और भोली आँखों वाले हिरन, काले भंवर कृष्णसार, नील गायें, चँवरी गायें, वे नन्हे-नन्हे खरगोश, सबको तुमने कैद कर दिया, माँ। · · 'उनसे उनके खुले जंगल छीन लिये तुमने । . . ___ 'देखो न, वे बड़े सारे पंखों वाले मोर : वे नीली, हरी, पीली, लाल चिड़ियाएँ। वे देश-देश के पंछी ! उनके तोतु मने पंख काट लिये, माँ ! वे आसमानों में जाने कहाँ-कहाँ उड़ते थे। जाने कितने जंगल, डाल, झरने घूमते थे। कहीं दाना, कहीं पानी, कहीं फल ।। - यहाँ बेचारे सब तुम्हारे पालतू हो गये। उनका आसमान तुमने छुड़ा दिया।
_ 'और वे रंग-बिरंगी सुनहली-रुपहली, भात-भाँत की मछलियाँ । आसमानों तक बहती नदियों, समुद्रों में वे खुल कर तैरती थीं। अब बेचारी तुम्हारे बनावटी सरोवरों में मनमारे पंख मारती रहती हैं। हम को लगा माँ, हम भी यहाँ कैदी हैं । हमारा जी नहीं लगता माँ, तुम्हारे इस महल में। यहाँ सब कैदी हैं, हम भी, तुम भी, बापू भी, पेड़-पौधे भी, पशु-पंखी भी। बहुत बड़ा है तुम्हारा कैदखाना !' - तेरी बातें समझना, मेरे बस का नहीं, मान! तू हर चीज़ को, उलटा और सबसे अलग देखता है। अरे प्राणी-उद्यान में सब प्राणियों को उनके स्वभाव के अनुसार ही तो रक्खा है । पंखियों के लिये पूरा एक वन ही तो बना दिया है, जंगल से अधिक रसीले फल-फूलों से भरा। मछलियों को मर्मर और स्फटिक के सरोवरों में तैरने को मिलता है। नदियों में उन्हें मगर-मच्छ निगल जाते, यहाँ वे सुरक्षित हैं। मृगों को रम्य क्रीड़ा-पर्वत दिये हैं हमने। और सिंह का पिंजड़ा कहाँ है ? उसकी गुफा में सोना पुता है। और उसे हमारे रखवाले पकवान, मेवे और फल खिलाते हैं। नहीं तो जीवों को खाता फिरता था वह । छिः छिः
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