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में ही उन्हें व्यस्त रखता था । पर उनके निर्देश पर जब भी कभी मैं धनुष पर तीर चढ़ाता, तो उसका मुख अपनी ओर कर देता था। गुरुदेव भय से थर्रा उठते । दौड़ कर मुझ तक आयें, कि तीर छूट कर सन्ना जाता था । मुझे आरपार बींधता तीर जाने कहाँ चला गया, पता ही नहीं चलता था। एक दिन गुरुदेव बोले : .
'कुमार, क्या इन्द्रजाल जानते हो?' 'नहीं महाराज, तीर खाने का अभ्यास कर रहा हूँ।' 'तो तीर कहां चला जाता है ?' 'वह तो आप अपनी विद्या से जानें...।'
'अपनी शस्त्र-विद्या में ऐसा तो कोई, रहस्य मैंने नहीं पढ़ा-गना ! शब्दवेध, दिशावेध, गगनवेध-सब जानता हूँ। पर यह वेध न पढ़ा न सुना, युवराज!'
'तो सुनें महाराज, यह आत्मवेध धनुर्विद्या है। मेरी दिग्विजय की यात्रा का मार्ग भीतर से गया है। वहाँ शत्रुओं की असंख्य वाहिनियाँ घुसी बैठी हैं। मैं उन्हीं के संहार की टोह में लगा रहता हूँ!'
. . गुरु दक्षिणेश्वर ने महाराज के निकट अपनी विवशता प्रकट की और विपुल दक्षिणा पा कर दक्षिणावर्त लौट गये।
शास्त्र-विद्या से शस्त्र-विद्या तक, कुछ भी मुझ पर कारगर नहीं हुआ, तो चिर अपराजेय मदन-देवता का आवाहन-अनुष्ठान किया गया। कि राजमहल में टिक सकू, ठहर सकू, रुक सकू, बँध सकू, और राजलक्ष्मी का हो सकूँ।
पर क्या करूँ, विचित्र स्वभाव लेकर जन्मा हूँ। इन बन्धनों और प्राचीरों से भी खेलता रहता हूँ। तो ये मुझे बाँध नहीं पाते । दूर देशों और महाजानपदों की श्रेष्ठ सुन्दरियाँ आईं हैं : वर्द्धमान के लिये उन्होंने अपूर्व मदनोत्सव का आयोजन किया है। प्रतिक्षण मदनोत्सव चल रहा है, मेरे खण्ड के कक्ष-कक्ष में। पर कोई अवरोध या निषेध मन में उठता ही नहीं। किसी कुण्ठा की कसक भी नहीं, विरोध का वैषम्य भी नहीं। विदेहों के इस वैभव का, नन्द्यावर्त का, मदन-देवता का और इन सारी बालाओं का कृतज्ञ ही हूँ। कि मुझे सुखी और महिमाशाली बनाने की चेष्टा में ये सदा निरत हैं।
इस ऐश्वर्य की एक-एक वस्तु का, इन सुन्दरियों के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग, एकएक हाव-भाव, भंगिमा, चितवन, शृंगार, लीला-कटाक्ष, सब का अकुण्ठ भाव से आनन्द-उपभोग करता हूँ। क्योंकि इन्हें सामने पाकर, मन में कोई भय नहीं, बाधा नहीं, आशंका नहीं। मिलन सहज है, सो विरह का प्रश्न ही नहीं उठता । निरन्तर
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