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• - सहसा ही मेरे भीतर एक अगम्य रहस्य का अवगुण्टन-सा उठ गया। ज्वलन्त अनुभूति हुई कि मेरी आत्मा का लोकात्मा के साथ, एक निगढ़ सक्रिय योग-मिलन घटित हुआ है। · · 'बाहर निकल कर देखा, माँ के प्रांगण में जनगण के सहस्रों नर-नारियों का समुदाय कई विशाल वर्तुलों में, मण्डलाकार नृत्यगान कर रहा है । जगद्धात्री की पूजा का यह पवित्र नृत्योत्सवः था। दिगन्तों तक व्याप्त पूर्ण चन्द्रमंडल की चाँदनी में, नत्यगान लीन लोक-सुन्दरियों के इस आनन्दोत्सव को देखा, तो आर्यावर्त के अभिजात राजवंशियों का वह उस रात देखा शरदोत्सव मुझे कितना डूंछा और निष्प्राण लगा।
__ अगले दिन कुण्डपुर लोटते हुए जान-बूझ कर मैं ने मां के रथ में ही यात्रा करने का निश्चय कर लिया था। पूछताछ उन्होंने विशेप कोई नहीं की। इतना ही अनुनय भरे कण्ट से बोली : 'मान, दूर-दूर से सारे ही परिजन-आत्मीय आये थे । तेरी सारी ही मौसियाँ और बहनें आई थों। सब तुझसे मिलने को यों उत्कंठित थीं, कि मानो देव-दर्शन को आई हों तेरे डेरे पर । किन्तु तुझे वहाँ कभी उपस्थित न पाकर सब बहुत खिन्न और हताश लौट गईं। - जो तुझे अच्छा लगे, वही कर । मैं तो कुछ कहूँगी नहीं ।' माँ के स्वर में करुणा-कातर विवशता थी।
- 'मैं मौन, निश्चल, आत्म-भावित हो उनके समग्र मार्दव को आत्मसाद करता रहा ।
हम परस्पर प्रतिबिम्बित-से, निर्वाक ही योजनों में यात्रा करते चले गये। साँझ ढलती वेला में, गंडकी तट के एक एकान्त आम्रवन की पीठिका में, पूरे आम्रकानन को आयत्त करता हुआ, प्रतिपदा का विशाल सुवर्णाभ चन्द्र-मण्डल उदय हो रहा था। पूरे वन को वलयित करता ऐसा विराट् चन्द्रोदय इससे पूर्व मैंने कभी नहीं देखा था । उसके उस पीत-कोमल आभा-वलय में मैंने अपने को मां के साथ युगलित पाया।
'एकाएक माँ ने मेरे कन्धे पर हाथ रख दिया। उनके कंकण में नारी. माँ की अंतिम ममता रणकार उठी। . . और फिर दो आँखों की गहरी कज्जल कोरें, इस पीली चाँदनी के आलोक में, आरती-सी उजल उठीं। ___ • • 'मेरा माथा मां के वक्ष पर निवेदित हो गया।
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