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आज सवेरे ईशान के कोण-वातायन पर खड़ा, किसी अलक्ष्य में आरूढ था कि अचानक कमरे में सुगन्धों का ज्वार-सा आ गया। कई नूपुरों के रणन से मेरा ध्यान-भंग हुआ । देखा, प्रमद-कक्ष की सारी बालाएँ दल बाँध कर आयी हैं। हाथ जोड़ सब का स्वागत किया, तो वे सकुचा आई । फिर पंक्तिबद्ध प्रणिपात कर, अर्द्ध वर्तुल में हार बाँध कर, स्फटिक के फर्श पर ही बैठ गईं । मुझे उन्होंने अपने साथ नीचे न बैठने दिया। तो अपने मर्मर तल्प पर आसीन हो लिया।
'तुम सब आई, कृतज्ञ हुआ।' चपल मादिनी बोली सब की ओर से : 'आपको तो अब हमारी याद ही नहीं आती। दर्शन दुर्लभ हो गये 'अरे याद की गुंजाइश कहाँ है, मादिनी, जबकि सदा सब मेरे साथ रहती हो।' 'आपकी लीला अपरम्पार है, देव । हम अज्ञानिनी, उसका पार कैसे पायें ?'
'अपार को पा गई हो, तभी तो ऐसे बोल रही हो । मझे तो वह अपार तुम्हारी ओढ़नी की गाँठ बँधा दीख रहा है । . ' मेरे कुंतलों के सँपलिये, जान पड़ता है, अब तुम्हारी बाहु को वेध कर, वक्ष पर आलोड़ित हैं । क्या कमी रह गई !'
सब मंजीरों-सी खिल-खिला आई । तब कौशाम्बी की बाला अनोमा बोली :
"कितने दिन हो गये, प्रमद-कक्ष के कमल-पाँवड़े हर साँझ अछुते ही कुम्हला जाते हैं । घोषा वीणा जाने कब से सूनी और निस्पंद नीरव पड़ी है। लगता है, देवता रूठ गये !' ___'ऐसा यदि तुम्हें लगता है, तो सचमुच मैं अपराधी हूँ। और तुम सबके योग्य नहीं हूँ।'
'हाय हाय, ऐसा न बोलें प्रभु, हमें यों झटक कर दूर न करें।'
'मतलब, दूर पड़ गया हूँ तुम से । कम पड़ गया हूँ तुम्हारे लिए । तभी तो तुम कातर हो ।'
'नहीं-नहीं, रंच भी कम नहीं हो हमारे लिए। बहुत पास हो, और पूरे हमारे हो । फिर भी आँखें ही तो ठहरी । दर्शन की प्यास इनका स्वभाव है न।'
'हाँ-हाँ, वह मैं समझ सकता हूँ। पर जिस रूप को देख लेने पर आँखों की प्यास बनी ही रह जाये, तो मानना होगा, कि वह रूप कमतर है।'
'इतनी कसौटी न करें, प्रभु, हम अज्ञानियों की । और कोई रूप देखने की इच्छा तो अब रही नहीं।'
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