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अपने आत्मिक मुक्तिमार्ग में मैं लोक से पलायन नहीं करूंगा। आत्म-मुक्ति मोर लोक-मुक्ति के बीच मेरे धर्म-शासन में अविनाभावी संबंध रहेगा। इसके लिए भावश्यक हुआ तो मैं ऐसी निदारुण और दुर्दान्त तपश्चर्या करूँगा, जैसी इससे पूर्व शायद किसी पुरुष-पुंगव ने न की होगी। क्योंकि मेरा मोक्षकाम, लोक के एकएक जीवाणु और परमाणु के परिणमन के साथ जुड़ा हुआ है। मैं ऐसी आत्माहूतिनी तपस्या करूँगा, कि निखिल चराचर महासत्ता के साथ तदाकार और एकाकार हो रहूँगा। तब जो ज्ञान-ज्योति मेरे भीतर से प्रकट होगी, वह केवल आत्मप्रकाशिनी नहीं, सर्वप्रकाशिनी होगी : वह केवल आत्म-सम्वादिनी, सर्वसम्वादिनी होगी।
यदि सत निरन्तर परिणमनशील है, तो प्रगति और विकास है ही। अनन्त प्रगति और विकास साध्य है ही, अपने में भी, और सर्व में भी। वर्तमान समाजव्यवस्था द्रव्य के इस स्वभावगत प्रगतिशील परिणमन पर आधारित नहीं। पाप और पुण्य की अन्ध भाग्यवादी व्याख्या स्थिति-पोषक ब्राह्मणों की देन है। मात्मा यदि कर्म बाँधने को स्वतंत्र है, तो कर्म की निर्जरा करने को और भी अधिक स्वतंत्र है।
___ मैं अपनी परात्पर कैवल्य-ज्योति से ज्ञान, दर्शन, सर्जन, सत्ता और जीवन का एक नया ध्रुव स्थापित करूँगा। मेरे बाद फिर-फिर यह ज्योति अन्तरालों में लुप्त-गुप्त हो सकती है । पर उत्तरोत्तर ऊर्ध्व से ऊर्ध्वतर ज्ञान-चैतन्य की क्रियाशक्ति को प्रकाशित करने वाले ज्ञान-योगीश्वर और कर्म-योगीश्वर जगत में प्रकट होते जायेंगे । सत्ता अंतिम नहीं, ज्ञान अंतिम नहीं, तो मैं भी अंतिम अर्हत् नहीं । अर्हत् कभी अंतिम नहीं हो सकते । ___.. इस लोक-यात्रा और आत्म-मंथन में जाने कब पूरा एक महीना बीत गया, पता ही न चला । कार्तिक पूर्णिमा की पूर्ण चन्द्रोदयी सन्ध्या में जब लौट कर आया तो मेरा अश्व अनायास ही मुझे इक्ष्वाकुओं की कुलदेवी अम्बा के मंदिर की ओर ले गया । जयकारों से व्याकुल जन-गण की भीड़ में प्रवेश कर, मैंने भवगती का शत-शत दीप-शिखाओं से आलोकित परम कारुणिक, अति ललित मुखमण्डल देखा।
· · मुझे तो वे अपने से बाहर कोई मिथ्या-पूजित देवता नहीं लगीं । मेरा समस्त चैतन्य एक अभिन्न आत्मभाव से उनकी ओर उमड़ पड़ा। वे परम ललितेश्वरी माँ, और कोई नहीं, मेरी ही आत्म-शक्ति का एक त्रिभवन-मोहन रूपविग्रह हैं। मेरी भवगती आत्मा ही उन परमा सुन्दरी माँ के रूप में वहाँ बिराज. मान दीखीं।
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