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क्या धर्म केवल निजी थोर वैयक्तिक वस्तु है ? क्या वह निरे वैयक्तिक योजमार्ग का साधक है ? क्या परिवेश और समाज-समुदाय से उसका कोई संबंध नहीं ? सत्य, अहिंसा, अचौर्य और अपरिग्रह का आधार-धर्म क्या मूलतः ही विश्व-सापेक्ष और समाज-सापेक्ष नहीं है? क्या परिवेशगत चराचर सृष्टि और जनसमुदाय के साथ का व्यक्ति का संबंध-व्यवहार ही, उक्त धर्माचरणों की कसोटी नहीं है ? क्या आत्म-शुद्धि, आत्मज्ञान और मोक्ष निरी व्यक्ति में बन्द वस्तुएँ हैं ? ऐसा होता तो सर्व लोकाभ्युदय के लिए क्यों बार-बार तीर्थकर जन्म लेते ? . . 'नहीं, आत्मधर्म को मैं लोक-धर्म से यों विच्छिन्न करके नहीं देख सकता। वह सम्यकदर्शन नहीं, स्वार्थी मिथ्यादर्शन है। व्यक्ति में अर्हत् तत्व प्रकाशित होगा, तो समाज में उसकी वात्सल्य-भावी पुण्य-प्रभा संचरित होगी ही। मुमक्ष का मोक्षमार्ग, निखिल चराचर के मंगल-कल्याण के भीतर से ही गया है ।
वैयक्तिक मुक्ति संभव है, तो लोक-मुक्ति भी अनिवार्यतः संभव है । जाने क्यों मेरा जी नहीं मानता, कि संसार को कुत्ते की दुम मान कर, अपने मुक्ति-मार्न पर अकेला पलायन कर जाऊं। समत्र लोक-जीवन और निखिल चराचर को निम्रन्थ, मुक्त, सम्वादी, सुन्दर देखने की एक अनिर्वार आत्म-वेदना और अभीप्सा मेरे भीतर दिन-रात जल रही है। मैं नहीं मानता कि जो अब तक न हो सका, वह आगे भी न हो सकेगा । मैं अनादि-अनन्तकालीन जिनेश्वरों और कैवल्य-पुरुषों का वंशधर हूँ। जिन तो आत्मजयी और सर्वजयी होते हैं। वे अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुख के अव्यावाध स्वामी होते हैं। ऐसा क्या है, जो उनके द्वारा साध्य और उपलभ्य न हो ? जिनेश्वर ऐसी पराजय कैसे स्वीकारे ?
अर्हत् केवली जिनों ने सद्भत पदार्थ को सीमित, कूटस्थ नहीं देखा, नहीं जाना। अपनी कैवल्य ज्योति में उन्होंने सत्ता को, पदार्थ को, अनन्त गुण-पर्याय बाला साक्षात् किया है। यदि पदार्थ अनन्त गुण-पर्याय संभावी है, तो विश्व तत्व अनन्त संभावी है ही। तब, जो अब तक न हुआ, वह आगे भी न होगा, यह कथन मुझे जिन-शासन के विरुद्ध लगता है।
सत्ता परम स्वतंत्र है। द्रव्य परम स्वतंत्र है । सो मेरी आत्मा भी परम स्वतंत्र है । तब मेरा आत्मज्ञान किसी परम्परागत शास्त्र या शास्त्र-कथन के प्रति प्रतिबद्ध नहीं हो सकता। मैं अपनी सर्वथा मुक्त अन्तर्वेदना, जिज्ञासा, मुमुक्षा और अभीप्सा की ज्वाला के भीतर से गजर कर ही, अपने आत्म-स्वरूप का स्वतंत्र साक्षात्कार करूंगा। और उसी के प्रकाश में विश्व-तत्व को जान कर, निखिल विश्व के साथ एक अटूट सम्वादिता का संबंध स्थापित करूंगा। उसके बिना सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह की कोई सार्थकता मुझे नहीं दीवती।
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