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लिप्सा को तुष्ट करने के लिए घने जंगलों में प्राणों की बाजी लगा कर प्राणियों का आखेट करते हैं। इनके दिव्य यज्ञों के लिए पशु जुटाते हैं। इनके लिए नवनूतन माँस की थाली संजोते हैं। ये चाण्डालों में भी निम्नतर कोटि के चाण्डाल कहे जाते हैं। सवर्णी आर्य इनका मुंह तक देखने से परहेज करते हैं।
· · मैंने एक नदी-तट पर उनकी एक उजड़ती बस्ती को देखा । दीन-दरिद्र चाण्डाल राज्याधिकारी के चाबुकों की मार तले, दौड़-धूप कर, अपने नाकुछ सामान उठा-उठा कर अपनी बैलगाड़ियों में लाद रहे थे। पूछने पर पता चला कि एक चाण्डाल ने अपना दातून नदी में फेंक दिया था, वह नदी की धारा में आगे कहीं स्नान करते एक ब्राह्मण की शिखा में उलझ गया । सो सारा ब्राह्मणत्व कुपित होकर इस चाण्डाल बस्ती को भस्म करने पर तुल गया। राज्याधिकारियों ने किसी तरह, भूदेवों को शान्त कर, रातोंरात इन कसाइयों को नदी से बहुत दूर, अरण्य में स्थानान्तर करने को विवश किया।
· · क्या इन्हीं चण्ड-कर्मियों, कम्मकरों, श्रमिकों, कृषकों, शिल्पियों की हड्डियों पर आर्यावर्त की लोक-विश्रुत सभ्यता-संस्कृति, धर्म, ज्ञान और वैभव का यह स्वर्गचड़ प्रासाद नहीं खड़ा हुआ है ? अपने शिल्प-विज्ञानों के देवता ऋभुओं, विश्वकर्माओं और अश्विनिकुमारों की ये आर्य क्या मात्र हवाई पूजा ही करते हैं ? उन देवताओं के उत्तराधिकारियों को ये धर्मान्ध और स्वार्थान्ध आर्य अपनी चरण-धूलि बना कर रखते हैं। इनका मह नहीं देखते, इनकी छाया से बचते हैं। उनके जानपदों और पौरद्वारों में इनका प्रवेश निषिद्ध है। भद्र आर्यों के गुरुकुलों और शालाओं में, तक्षशिला, और वाराणसी के विश्व-विद्यालयों में शिक्षा पाने का अधिकार इन्हें नहीं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी इनकी सन्तानों को अशिक्षित और अज्ञानी रख कर, आत्म-दैन्य, दारिद्र्य और आत्महीनता का भाव इनकी मज्जाओं मे बद्धमूल कर दिया गया है। कार्षापण, दम्म और वस्त्र-धान्य का अभाव इन्हें नहीं। पर इन्हें आत्मभाव और मानुषिक गौरव से सदा के लिए वंचित कर दिया गया है।
पूरे आर्यावर्त में केवल दस प्रतिशत लोग अभिजात, कुलीन आर्य हैं, शेष अम्मी प्रतिशत प्रजा ग्राम्य है, श्रमिक है, सेवक है, दास है, पददलित और त्यक्त है । जहाँ कोटि-कोटि प्रजाओं की समूची जातियाँ और पीढ़ियाँ, शताब्दियों से अभिजात वर्गीय भद्रों द्वार। शोषित, निर्दलित और पोड़ित हैं, वहाँ के धर्म, तप, ज्ञान और दर्शन को जीवित कैसे मानूं ? क्या यह धर्म, ज्ञान और अध्यात्म, शोषक और अवकाशजीवी आर्यों का निपट बौद्धिक विलास ही नहीं है ? धर्म और जीवन
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