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और अवन्ती की पट्ट - महिषियों की करधोनियां गढ़ी जाती हैं । दुर्दान्त मगरमत्स्यों को विदीर्ण कर उनके हृदयों में गोपित अमूल्य मुक्ताफल और मणियाँ निकाल कर, ये उन्हें पृथ्वीनाथों को अर्पण करके ही संतुष्ट हो लेते हैं । बदले में कुछ सुवर्ण मुद्राएँ कम नहीं लगती इन्हें । अथाह समुद्रों और नदी-तलों में गोते लगा कर,
मुक्ताफलों से भरी सीपियाँ निकाल लाते हैं । इनके भुज - दण्डों के पट्ठों पर ही भृगुकच्छ, माहिष्मती, अवन्ती और चम्पा के वाणिज्यवाही नदी घाट और समुद्रपत्तन गर्व से इठला रहे हैं ।
'ये धीवर, ये मल्लाह समाज के पादवर्गीय शूद्र | अन्त्यज हैं । पौरव कुल की आद्या माता केवल स्वर्ग की अप्सरा उवंशी ही नहीं थी । आर्यों की सरस्वती और संस्कृति के उद्गम- पुरुष भगवान कृष्ण द्वैपायन व्यास की जननी धीवरकन्या मत्स्यगन्धा के गर्भ से ही महाभारतों की वंशवेली पुनरुज्जीवित और पल्लवित हुई थी । महाभारत की उसी आद्या जनेता के वंशज हैं ये धीवर, ये मल्लाह । रक्त-शुद्धि के अभिमानी आर्य अपनी उस माँ को भूल कर उसके रक्त-बीज को पददलित करने में किंचित भी लज्जित नहीं हैं। आर्यों की समाजव्यवस्था में ये आज भी अन्त्यज ही बने हुए हैं ।
'लोकालय से बहुत दूर, मैं चर्मकारों के ग्रामों में भी गया । मृत और • आखेटित वन्य पशुओं और जलचरों की लाशों को लाकर, निर्वेद भाव से उनके दुर्गन्धित अस्थि-मांस और अंतड़ियों को निकाल कर, ये तरह-तरह के चर्मों को शोधते और कमाते हैं। उनसे ढालें, चड़सें, मशकें तथा नक्काड़ों, टोलों, मृदंगों के पृष्ठ और अनेक प्रकार के थैले, आर्य ऋषियों के लिए व्याघ्रचर्म और मृगचर्म के आसन प्रस्तुत करते हैं । मृदु लोमश शशकों और मृगों की त्वचा के सुन्दर उपानह बनाते हैं । स्वर्णतारों, महार्घ मखमलों और ऊनों में स्वर्णतारों और रेशम से बूटेकारी करके राजसी उपानह प्रस्तुत करते हैं । इनके बनाये उपानहों से, यवनों और पारस्यों तक के उद्यानों और महलों की मर्मर सीढ़ियों पर उतरते, राज - कन्याओं और रानियों के गौर-गुलाबी चरण-तल अभिनव शोभा से दीपित होते हैं । ऐसे कि मानो भारत का हस्त शिल्प समुद्रों की लहरों पर मीनाकारी कर रहा हो । पर ऐसी शोभा के शिल्पी ये चर्मकार, अपनी मातृभूमि में महित चाण्डाल कहे जाते हैं । इन महाघं उपानहों के निर्माताओं को, उनके समाजविधाताओं ने उपानह धारण करने के अधिकार तक से वंचित रक्खा है । नंगे पैर चलना ही उनके इस कारु-शिल्प का वंशानुगत पुरस्कार है ।
और मैंने नगर-प्रामों से और भी परे हट कर उन आखेटकों, बूचड़ों के पुरवे भी देखे, जो अपने जिह्वा-लोलुप ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य महाजनों की स्वाद
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