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ताने, तीर-कमान, तलवार-भाले, और बल्लमों से लगाकर, महल - भवनों की छतों में लगने वाले बीम, दुर्गों के कपाटों की धुरियाँ और उनके कीलों तथा हाथियों को बाँधने वाली साँकलों तक का निर्माण ये करते हैं । इन्हीं के द्वारा निर्मित शस्त्रास्त्रों तथा दुर्गों के दुर्भेद्य कपाटों के बल पर सम्राटों के साम्राज्य खड़े हैं, और धनकुबेरों के तहखाने सुरक्षित हैं । इन्हीं की ढाली साँकलों में बंध कर अबन्ध्य हस्ती चक्रेश्वरों के गौरवशाली वाहन बनते हैं ।
पर नगरों से दूर इन बस्तियों के धुएँ से कलौंछे घरों को, अनेक धातु द्रावक रसायनों की दुर्गन्धित नालियों को भी सहना होता है । पर वज्र के ये शिल्पी शूद्र कहे जाते हैं । भद्र आर्यों के महालयों और दुर्गों को देखने तक का इन्हें अवकाश नहीं । फटे-टूटे वस्त्रों और लंगोटियों पर भी इनके काले पथरीले शरीर मानो अहसान करते हैं ।
'बद्धिक बढ़इयों के ग्रामों का आकर्षण भी कम नहीं। हिंस्र प्राणियों से भरे दुर्गम अरण्यों को भेद कर, ये अकाट्य पेड़ों के घड़ काट लाते हैं । उनमें से इनके बनाये चक्रों पर, बैलगाड़ियों से लगा कर सम्राटों के रथ तक पृथ्वी की परकम्मा करते हैं । इनके द्वारा । निर्मित शहतीरों, द्वारों, खिड़कियों और रेलिंगों से बने घरों और प्रासादों में मनुष्य प्रश्रय और सुरक्षा का ऊष्म सुख अनुभव करते हैं । चन्दन, शीशम और महोगानी काष्ठों में ये अपनी कल्पना, कारीगरी और पच्चीकारी से सौन्दर्य सुरम्य हर्म्य खोल देते हैं। पर इनके गढ़े रथों पर चढ़ विश्वजय करने वालों, तथा इनकी निर्मित नावों पर चढ़कर देशान्तरों की धन-सम्पदा बटोरने वाले सार्थवाहों की समाज व्यवस्था में, ये शूद्र हैं, समाज के पदतल में हैं ।
'राज- नगरों और ग्रामों से ही सटी हुई ऐसी कई वीथियाँ होती हैं, जिनमें ललित शिल्पियों के आवास हैं । इनमें चित्रकार हैं, मूर्तिकार हैं, स्वर्णकार हैं, रत्न - मीनाकार हैं, हस्तिदन्तकार हैं । इनके द्वारा रचित चित्रपटों से राजकन्याएँ, राजपुत्र, श्रेष्ठि-कन्याएँ, दूर से अनदेखे ही परस्पर एक-दूसरे के सम्मोहन - पाश में बँध जाते हैं । इनकी सौन्दर्य-दृष्टि इतनी पारदर्शी है, कि किसी अन्तःपुरिका
मुख-मण्डल को एक झलक में देखकर ही, अपने चित्रपट में ये उसके असूर्यपश्य अंगों के गोपन चिह्न तक अंकित कर देते हैं । इनके रंगों में मानव मन के आकाश-विहारी स्वप्न ढलते हैं । इनके द्वारा अंकित भित्ति चित्रों से महालयों में, अपूर्व भाव और कल्पना के सौन्दर्यलोक खुलते हैं । इनके द्वारा शिल्पित मूर्तियों में, पाषाण का काठिन्य, सुन्दरियों के ओष्ठ-कमल, उरोज मंडल और उरुओं का मार्दव बनकर, मनुष्य की मार्दव-चेतना को लोकोत्तर बना देता है ।
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