________________
१२९ ओड़नी ओढ़े एक कुमारिका ने मुझे दूध और भात का भोजन कदली-पत्र पर परोसा। मैंने कहा :
'भन्ते कुमारी, तुम्हारा गन्धशालि मधुपर्क है। तुम्हारा दूध अमृत है।'
कृषक-बाला लज्जा से मूक, नम्रीभूत हो रही। कृषक आकिंचन्य से कातर हो आया।
'हम भन्ते कैसे, महाभाग ! हम लघुजनों को लज्जित न करें, भन्ते । आप आर्य हैं, प्रभु, क्षत्रिय हैं । हम भूमिहार अनार्य हैं । हम प्रजा हैं, आप प्रजापति !'
_ 'पति यहाँ कोई किसी का नहीं, भन्ते कृषक । हम सब अपने-अपने पति हैं। और प्रजापति हम नहीं, तुम हो । क्योंकि तुम्हारे श्रम के वीर्य से धरित्री गर्भ धारण करती है । तुमसे उत्पन्न धान्य से प्रजाएं जन्म लेती हैं, जीती हैं। आर्य और क्षत्रिय वंश से नहीं, कर्म से होते हैं, भन्ते कृषक ! जो अर्जन करे, वही आर्य । जो प्रजाओं को जीवन दे, वही क्षत्रिय । तुम्हीं सच्चे आर्य हो, क्षत्रिय हो, प्रजापति हो, भन्ते कृषक ।' ''ये तन्दुल आपके योग्य नहीं, देव !' 'ये गन्धशालि हैं, भन्ते कृषक । कुमुद-शालि हैं।'
'यह तो आपके प्रेम की सुगंध है, आर्य । गंधशालि हमारे पास कौन रहने देगा । कुमुद-शालि हमारा खाद्य नहीं। वह तो वैशालकों और मागधों का आहार है ।'
'तुम उगाते हो, खाते वे हैं ? तुम नहीं ?' 'वह महद्धिकों के ही योग्य है, देव । हम उन्हें खिला कर तप्त होते हैं।'
मैं स्तब्ध और उबुद्ध हो रहा। पर कहीं मेरे गहरे में एक ऐसा आघात भी हुआ, जो मेरे हर रक्ताणु को वेध गया।
. . . 'काशी और कौशल के तन्तु-वाय-ग्रामों में गया हूँ। इन वस्त्र-शिल्पियों की कुटीर-उद्योग शालाएँ देखी हैं। इनकी उँगलियों और नखों में विश्वकर्मा बैठे हैं । अंशुकों में ही ये अपने हृदय की समस्त कोमलता बुन देते हैं। इनकी बुनी मुलायम और महीन मलमलें चाँदनी को मात करती हैं। पर ये मोटे-झोटे जीर्ण वस्त्र पहने रात-दिन अथक परिश्रम करके अपने ही भीतर से ऊर्णनाभ की तरह वसनों के जाल बुनते चले जाते हैं। इनके द्वारा निर्मित स्वर्णखचित कौशेयों से कौशाम्बी, अवन्ती और वैशाली के राजपुरुष, श्रेप्ठि, सामन्त और सुन्दरियों की विलास-संध्याएं जगमगाती हैं। इनकी मलमलें पारस्य
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org