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चीजों की अलग-अलग पण्य-वीथियाँ और बाज़ार लगे हैं। पण्य-रचना के बाहर एक ओर सार्थवाह श्रेष्ठियों के रंग-बिरंगे डेरे-तम्बुओं वाले शिविर लगे हैं । दूसरी ओर अवन्ती से लगाकर मगध तक अनेक राजकुलों के विशद-विस्तृत,
और भव्य सज्जा, तोरण, पताकाओं से शोभित अलग-अलग शिविर आयोजित हैं । बीचोंबीच एक आलीशान मेहराबी द्वारों और चित्रित खम्भों से श्रेणिबद्ध विशाल सभा-भवन बना है, जहाँ सबेरे से रात तक अनेक गोष्ठियाँ, मनोरंजन, संगीत-नृत्य और नाट्य के कार्यक्रम चलते रहते हैं । प्रायः इस मेले में राजघरानों के अन्तःपुर, युवा राजपुत्र और राजकन्याएँ भी एकत्रित होते हैं । एक प्रकार से यह युवाजनों का शरदोत्सवी मेला होता है । रूप, लावण्य, सौन्दर्य, सुगन्ध, विविध-विचित्र वेश-सज्जा, केश-सज्जा, रत्न-अलंकारों की जगमगाहट से सारे वातावरण में एक असह्य संकुलता और चकाचौंध है। रूप के इस रत्न-हाटक में सौन्दर्य और लावण्य की प्रतिस्पर्धा है, टकराहट है। मेखलाओं, नूपुरों, मंजीरों, घंटिकाओं और संगीत-वाद्यों तथा नृत्य -तालों में कोई सुर-सम्वाद नहीं, प्राण का एक तुमुल अराजक कोलाहल है। मान-अभिमान, अहंकार-ममकार,. रागहेष, कामना-वासना की एक उग्र और रक्ताक्त स्पर्धा है। रसोत्सव तो यह मुझे रंच भी नहीं लगा, मरीचिकाओं का एक भ्रामक इन्द्रजाल चारों ओर फैला है, जो चित्त को रसलीन नहीं, उद्विग्न और अशान्त करता है।
लिच्छवियों का राज-शिविर किसी भी तरह मुझे रास न आया । सो मां की विशेष अनुज्ञा लेकर, मैंने अपना तम्बू, एक सीमावर्ती आम्रकानन में लगवा लिया है। वहीं बगल में मेरी रथशाला बन गई है। साथ में रक्खा है केवल सारथी गारुड़ को और दो-एक परिचारकों को । एक साँझ मुझे खोजती मेरी सारी बाला-सहचरियों ने मेरे तम्बू में मुझे आ घेरा। बोलीं कि-'हमारा चितचोर हमसे बच निकले, ऐसी कच्ची हम नहीं !' मेरी चुप्पी मुस्कान से वे सब स्तब्ध हो रहीं। तब. मैंने उन्हें समझाया कि मेला देखने आया हूँ, सो घिराव अच्छा नहीं। मुझे अकेला रहने दें, स्वच्छन्द विचर कर जी भर कर खुली आंखों मेला देखने दें। उनके साथ तो सदा हूँ, और रहूंगा। मुक्त भाव से मेला देखने की अनमति मैंने उनसे चाही। शब्द नहीं, केवल मेरी बांखों के अनुरोध से वे मान गईं। मैं उनका बहुत कृतज्ञ हुआ। वे समाधान पाकर चली गईं। जैसे कि मैं उनमें से हरएक के साथ गया हूँ, अलग-अलग।
साथी-सखा की चाह मुझे कभी नहीं रही। फिर मेले में आया हूँ, तो प्रजाओं के इस मिलनोत्सव को देखना चाहता हूँ। संपूर्ण देखना, अकेले रह कर ही संभव है । बहुतों का साथ होने पर, जैसे बँट जाता हूँ । अकेला रहूँ तो सब के साथ सहज जुड़ाव हो जाता है । दो-तीन दिन, जब जी चाहा, अपने मन की मौज से, मेले को
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