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१२.
- 'हो मां, चुनाव मैंने नहीं किया है, तो सब सहज स्वीकृत हैं ही, अपने आप में, मेरे निकट ।' ___ 'यह तो सच ही, मेरे चक्रवर्ती बेटे के लायक़ बात हुई ! तू कहे तो सब राजकुलों में खबर करवा दूं कि उनकी कन्याएँ वर्द्धमान की वरिता हुईं। और विवाह का शुभ मुहूर्त दिखा लूं।'
'मेरा चक्रवर्तित्व राज्यों, सिंहासनों, शरीरों के वरण से सिद्ध नहीं होगा, मां। वह इन सब को अपने में समेट कर, इनकी सीमाओं का अतिक्रमण करेगा। तब जो साम्राज्य मेरे भीतर से प्रकट होगा, उसमें ये सब स्वतंत्र होंगे। और मैं इनके आत्म-स्वास्तंत्र्य का आईना बनूंगा। मुझमें शाश्वत प्रतिबिम्बित, ये सदा को, त्रिकाल और त्रिलोक में मेरे हो रहेंगे। इससे कम कोई चक्रवर्तित्व मेरा नहीं, मां ।'
समझ रही हूँ। पर मेरी बुद्धि में समा नहीं पातीं, तेरी ये बड़ी बातें, लालू । पूछती हूँ , ऐसे ये कन्याएं कब तक कुंवारी रहेंगी ?'
'मेरी होने आयीं हैं, मां, तो सदा कुवारी रहेंगी ही। अक्षत कुमारिका ही महावीर की वधू हो सकती है। चाहें तो ये मेरे साथ आयें, या अपनी मन चाही राह जायें। इतना जानता हूँ कि मेरे पास से ये वियोगिनी नहीं, योगिनी होकर ही लौटेंगी। जहाँ भी जायेंगी, अपने अन्तर-पुरुष की अखण्ड सोहागिनें होकर रहेंगी।' . माँ की आँखों में छलछला आये आंसू व्यथा के थे कि गर्व और आनन्द के, सो तो वे ही जानें।
पिप्पली-कानन का मेला-नगर आ लगा था। मां सारथि को आवश्यक निदेश देने में व्यस्त हो गई।
पिप्पली-काननके विशाल वन-प्रदेश में, कई योजनों के विस्तार में यह मेला लगा है। आर्यावर्त के विभिन्न प्रदेशों और कई दूर देशान्तरों तथा द्वीपों तक की नाना-विध दुर्लभ वस्तु-सम्पदा लेकर, चारों ओर से कई व्यापारी सार्थ यहाँ आये हैं। बीच में स्वस्तिक के आकार में, और चारों ओर मण्डलाकार, अनेक पण्यवीथियां रची गई हैं। सुवर्णकारी, मीनाकारी, रत्न और आभूषण, बहुमूल्य अंशुक और स्वर्ण खचित वस्त्र, विविध धातुओं के भाण्ड और सज्जा-उपकरण, महार्घ वनौषधियाँ, गिल्प, चित्र, काष्ठ और चन्दन, हस्तिदन्त, नागदन्त तथा मर्मर पाषाणों के सज्जा-साधन, प्रसाधन-सामग्री और इत्र-फुलैल आदि बेशुमार
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