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है मुझसे ! • एक दिन मैंने कौतूहल वश, दर्पण को उलट कर उसका पृष्ठ देखा। उस पर निषेध - वाक्य अंकित था : 'यह पक्ष न खोलो।' सो खोलना अनिवार्य हो गया । ढकना हटाते ही, सामने पाया अपना अस्थि-पंजर, सन्मुख प्रत्यक्ष प्रवाहित रक्त वाहिनियाँ और स्पन्दित बहत्तर हजार नाड़ियाँ और धड़कता हृदय । एक मूलगामी धक्के के साथ, जैसे मैं चौंका और जागा, और मुंह से चीससी निकली - 'उफ्' । जानू पर चिबुक टिकाये बैठी वैनतेयी घबड़ा कर उठ खड़ी
हुई :
'प्रभु, यह आपने क्या किया ? दर्पण का निषिद्ध पक्ष खोल लिया दर्पण की विद्या लुप्त हो गई ! हाय, भगवान ! '
मैं पहले तो निश्चल उसकी परेशानी पर मुग्ध होता रहा। फिर ईषत् मुस्कुरा कर बोला.
:
'तुम्हारे दर्पण की विद्या लुप्त नहीं हुई : और भी उद्दीप्त हो गई है। देखो निषिद्ध पक्ष में अपना चेहरा !'
?
लड़की ने दर्पण मेरे हाथ से लेकर उसमें अपना चेहरा देखा, और देखकर ऐसी आत्मविभोर हो गई, मानो अपने ही आप पर मुग्ध हो गई हो ।
'क्या देखा वैना, बताओ तो !'
'प्रभु, अस्थियों और नसों के जंगल के पार, एक और वैनतेयी देखी। ऐसी नित्य सुन्दरी, कि अब तक तो ऐसा रूप अपना कभी नहीं देखा था । इन्द्रजाल '!' क्योंकि वह देखने की शक्ति तुममें तब भय का भंजन हुआ, तो हड्डियों
'इन्द्रजाल नहीं वैना, सत्य देखा तुमने। है । और दर्पण के निषेध को मैंने तोड़ा है। का जंगल पार हो गया ! '
लड़की मेरे पैरों पर ढुलक पड़ी। उसके पलक-पक्ष्मों का गीलापन कैसा अद्भुत मुक्तिदायक लगा ।
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किसी-किसी रात छत पर नवनिर्मित क्रीड़ा-सरोवर में स्नान - केलि का आयोजन किया जाता है । सरोवर के तल की शिलाओं और दीवारों में ही निसर्ग रोशनी -सी है । और ऊपर से चन्द्रमा उसमें खिलखिलाते रहते हैं । नील नदी के देश से आये फुलैल पानी में छोड़ दिये जाते हैं । कुंजर - विमोहिनी और घोषा वीणा की महीन रागिनियाँ, हवा में स्पन्दन के नये ही प्रदेश खोलती रहती हैं ।
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