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... सचमुच ही कुछ नहीं करता हूँ। पर अक्रिय और जड़ तो अपने को कभी क्षण भर भी नहीं पाया । भीतर निरन्तर एक क्रिया चल रही है : एक अजस्र परिणमन । गुफा के गहन में फूटती किसी निर्झरी-सा कोई सुख अन्तस्तल के गोपन में उमड़ता रहता है। प्रतिक्षण अपने आसपास की हर वस्तु और घटना को देखता रहता हूँ, जानता रहता हूँ। कोई आग्रह नहीं है कुछ करने का, कहीं जाने का, कोई चीज़ पाने का ! उदासीन ? · · नहीं मैं रंच भी उदासीन नहीं हैं। आनन्द के सिवाय और कुछ मेरी चेतना में संभव नहीं।
इच्छा नहीं है, उत्सुकता नहीं है, व्याकुलता नहीं है । फिर भी देखता हूँ, इस महल का और पृथ्वी का चुनिन्दा वैभव मेरे सन्मख आ प्रस्तुत होता है, कि उसे भोगं । उससे भागता नहीं, उसे भोगता ही हूँ। अलग से भोगने का संकल्प या कष्ट भी नहीं करना पड़ता । भीतर के एक अविरल स्व-भाव बोध में, वह अपने अनन्त परिणमन-रहस्य खोलता है : उससे रसालता और भोग की जो आत्मीय अनुभति होती है, वह कैसे बताऊँ! ___ मैं तो विपल मात्र भी रिक्त या निष्क्रिय नहीं हैं। फिर भी सचमुच ही कुछ करता नहीं हूँ । बस होता रहता हूँ, और अपने को और सर्व को होते हुए देखता रहता हूँ । चुप रहो, खड़े रहो, और जो-जो होता है उसे देखते रहो। इससे बड़ा काम और क्या हो सकता है !
देख रहा हूँ, बरसों पर बरस बीतते चले जा रहे हैं । वस्तुएँ और व्यक्ति भी बीतते और रीतते दिखाई पड़े हैं । पर कोई विषाद या अवसाद मन में नहीं आता। कोई विरह या वियोग का दर्द नहीं टीसता । क्योंकि केवल बीतता ही नहीं, नया आता भी तो रहता है। केवल रीतता ही नहीं, भरता भी तो रहता है। और इन दोनों से परे कुछ ऐसा भी है, जो कभी बीतता ही नहीं । जो समरस भाव से सदा सुलभ है, जिसके साथ सदा संयोग और मिलन में हैं । इस बीतते के आलम में भी, एक अद्भुत अनबीतेपन का अहसास सदा होता रहता है। इस व्यतीतमान के मायालोक में, अव्यतीत-भाव से विचरता रहता हूँ। - परिवर्तन से परे भी जैसे, मैं वस्तुओं और व्यक्तियों के साथ, घर पर हूँ। क्योंकि परिवर्तन ही नहीं, परिणमन देखता हूँ। परिवर्तन दुखद हो सकता है, परिणमन सुखद ही हो सकता है। क्योंकि उसमें खाली होने, भरने और फिर भी वही रहने की स्थिति एक साथ अनुभव होती है । जहाँ नित्य नूतन परिणाम है, वहाँ सदा कुछ नवीन हो रहा है : नित्य यौवन और वसन्तोत्सव है । वहाँ अक्रियता और सक्रियता संयुक्त है । कुछ भी नहीं करता हूँ सचमुच, पर, क्या है जो नहीं कर रहा हूँ ? काश,
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