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सुन्दरियों के स्वप्न-देश में
इस बीच, मेरे कक्ष की छत पर, एक आधी रात, अचानक किसी चक्र की घर्घराहट सुनाई पड़ी। मैं तो सद। जागता ही रहता हूँ : निद्रा की सुषुम्ना गोद में ही, यह जागृति एक साथ शयन, विचरण, दर्शन का सुख देती रहती है।
छत में आकर देखा, तो कोई विद्याधर अपने यान के साथ प्रस्तुत था। आगन्तुक ज़रा भी अपरिचित नहीं लगा। उसकी आँखों में स्वागत था, और जैसे अज्ञातों का आमंत्रण था। मैं यान पर आरूढ़ हो गया। · · उसकी उड़ान की चक्राकार गति में, अपने ही भीतर के असंख्य आत्म-प्रदेशों में यात्रा होती-सी अनुभव हुई। . . फूटती द्वाभा में हमने पाया, कि हम कैलास की सर्वोच्च चूड़ा पर खड़े हैं। हमारे पैर हिमानियों में शिल्पित से रह गये हैं। सुदूर पूर्व में, उषा की गुलाबी प्रभा मानो किसी पद्मकोश की सहस्रों पंखुरियों-सी खुल रही है। उसके आलोक में सहसा ही दिखायी पड़ा, सामने की चूड़ान्त हिम-शिला पर एक विशाल चरण-युगल उत्कीर्ण है। • 'मानो कि अभी-अभी कोई पुरुष यहाँ अपनी पादुकाएँ पीछे छोड़ जाने कहाँ अन्तर्धान हो गया है । इस एक पल में से हजारों वर्ष पलक मारते गुज़र गये हैं। और उनके आरपार कालातीत रूप से यहाँ खड़े उस आदित्य-पुरुष के चरण-चिह्न, इस हिम-शृंग पर निसर्ग रूप से सदा को शिल्पित हो गये हैं। फूटते दिवालोक में इनकी हीरक प्रभा से, जैसे लोकालोक भास्वर हो उठे हैं । निमिष मात्र में ही पहचान गया, यह है भगवान ऋषभदेव की चरण-पादुका। यहीं पर तो वे महाश्रमण मृत्युंजयी महातपस में लीन होकर मातरिश्वन हो गये थे।
पूर्वाचल पर उद्भासित होती उषा ने, अपने वक्ष के गुलाबी कलश ईषत् झुका कर प्रथम प्रजापति-पुरुष के उन काल के भाल पर अंकित चरणों का अभिषेक कर दिया। पादुका के पाद-प्रान्त में बैठा एक उज्ज्वल वृषभ उस अभिषेक की अक्षत जलधारा को अनवरत पीता चला जा रहा है। · · ·आदिनाथ ऋषभेश्वर के श्रीचरणों में ललाट ढाल कर, उस हिरण्य मुहर्त में अनन्त लोकों और कालों का जो वैभव एकाग्र देखा, उसे शब्दों की सीमा में कैसे समेट्।
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