________________
१०८
हैं। सूक्ष्म नक्काशी तथा सुवर्ण-मीना के काम और चित्रसारी करने को पारस्य और यवन देश के कई कला-शिल्पी आये-गये हैं। विजयार्द्ध की विद्याधर नगरियों और प्रभास तथा पुष्करवर-द्वीप से चमत्कारिक विभूतियाँ और वस्तु-संपादाएँ बटोरी गई हैं। जानी हुई पृथ्वी के सीमान्तक पट्टनों से, दुर्गम समुद्रों और द्वीपान्तरों के दिव्य ऋद्धि-सिद्धिदायक अकृत्रिम रत्न-दर्पण, चषक और झारियाँ आई हैं। रात और दिन अविश्रान्तं शिल्पन और कारु-कार्य मण्डन द्वारा, महल के इस पूरे खण्ड को, जैसे ईशान स्वर्ग की प्रतिस्पर्द्धा में रचा गया है।
हर हफ्ते राजमाता, कभी मगध, कभी काशी-कोसल, कभी श्रावस्ती, कभी कौशाम्बी, कभी अंग-बंग और कलिंग तो कभी अवन्ती तक की यात्रा स्वयं अपने परिकर के साथ करती रही हैं। और ऐसी हर यात्रा में, नवनूतन शोभा से सज्जित रथों में चढ़ कर, स्वर्णद्वीप से पारस्य तक की, और आर्यावर्त के तमाम महाजनपदों और राजनगरों की चुनिन्दा सुन्दरी बालाएं उनके साथ, नन्द्यावर्त के महलों में आई हैं।
· · सुना और सुन कर मैं मुस्कुरा आया। माँ की दूरदर्शी चिन्ता का रहस्य पा गया। मेरी इन निरन्तर की यात्राओं और पर्यटनों से वे चौकी हैं, आतंकित हुई हैं। उस रात हिमवान से लौटने पर, उनका जो चिन्ताकुल और प्रतीक्षापागल रूप देखा था, उससे मेरे हृदय में एक लकीर-सी खिंच गई थी। उस रात जहाँ भीतर असीम के आँगन से लौटकर महल की प्राचीरों में बन्दी हो रहने का अवसाद मुझे असह्य लगता रहा, वहीं माँ की वह मूक चिन्तामूर्ति और उनकी मुंदी आँखों से टपका, उनके अन्तस्तल का वह आँसू मेरी तहों को झकझोरता रहा था।
· · ·आज रात फिर मैं अपने निज-कक्ष से बाहर नहीं निकला । - - पर अनाम पक्षियों के परों की मसृण सुख-शया में, विराम न मिल सका। मेरी जंघाओं में कठोर हिमानियों की आलिंगन-पीड़ा कसकती रही। और महाकाल-पुरुष का एक चरण-युगल, बराबर ही मेरे हृदय के द्वार खटखटा रहा था।
देख रहा हूँ, इस एक ही जीवन में, अचिन्त्य भोग-ऐश्वर्य के एक नये ही विश्व में, दूसरा जन्म लेना पड़ गया है। अब बड़ी भोर पहली विहंगिनी का गान मुझे नहीं जगाता। मन्द्र-मधुर तन्तु-वाद्यों पर बाला-कण्ठों की प्रभातियाँ ही मुझे जगाती हैं। अपने ही आप उठने को स्वतंत्रता संभव नहीं रही है। उठना चाहूँ, उससे पहले ही जाने कितनी अप्सरियों की हथेलियाँ और बाँहें चारों ओर फैली दीखती हैं। उपधानों की जगह बाहुओं के मृणाल-वृन्त लचकते दिखाई पड़ते हैं। माथे के नीचे
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org