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आया हूँ। अपने सप्तक साधो, अपनी खूटियाँ कसो, अपने तारों पर उत्तान होओ: मैं तुम्हारी वीणा को एक दिन ब्रह्माण्डों के शीर्ष पर बजाऊँगा।
दूर पर राजगृही के सुवर्ण-रत्निम शिखर चमक रहे हैं । इसके आरामों और उपवनों में, सुनता हूँ, देव रमण करने को उतरते हैं। इसके फलोद्यानों में रस-भारनम्र फलों की डालियां धरती को चूमती रहती हैं। इसके नीलमी सरोवरों में स्फिटक जैसे जल बिछलते रहते हैं : उनके तटों पर क्रीड़ा करते हंसमिथुन भी निर्विकार भाव से स्वैर-विहार करते हैं । सुमागधी के तटवर्ती इस मगध देश को, वेदों ने भी गाया है। यही वेदों का ऋषि-चरण-चारित कीटक जनपद है ।
पांच शैलों से घिरी यह राजगृही, पांचाली की तरह अपनी दस भुजाएं पसारे जन-जन को परितृप्त करने को आकुल है । वैहार, वराह, वृषभ, ऋषभगिरि
और चैत्य जैसे पांच प्रशस्त पर्वत अपने सघन वनों की पत्रिम आभा से इसे आवरित किये हैं । इन पर्वतों के लोध्र-वनों की माणिक्य छावों में प्रणयीजन परिवेश भूल कर, रात-दिन क्रीड़ा-केलि में लीन रहते हैं। यहीं गौतम ऋषि ने उशीनर राजा की शूद्रा कन्या के भीतर काक्षिवान आदि पुत्रों को जन्म दिया। गौतम के वंशधर होने से वे क्षत्रिय कहलाये और मागधवंशी नाम से विख्यात हुए । यहाँ प्रेम के राज्य में कुलाभिमान की मर्यादाएँ टूटी, क्षात्रत्व ब्रह्मतेज से दीप्त हुआ, शूद्रा त्राता क्षत्रियों और परित्राता ब्रह्मर्षियों की जनेता बनी। अंग, बंग, काशी
और कलिंग के राजाओं ने गौतम ऋषि के आश्रम में रह कर अपने तीरों और तलवारों को ज्ञान-ज्योति की सान पर चढ़ाया। ___ इसी गिरिव्रज की पार्वत्य कन्दराओं में अर्बुद और शक्रवापी नामा सर्पराज रहते हैं, जो शत्रुओं का अमोघ रूप से दमन करते हैं। ये अरिंदम सर्पदेवता, यहां अरिहन्तों के मस्तक पर छत्र बन कर छाये रहते हैं। यहीं स्वस्तिक और मणिनाग नामक नागों का निवास है। वृथ्वी के आदिमकाल से वे अपनी मणिप्रभा से इस मागधी भूमि को नित्य-यौवना सुन्दरी बनाये हुए हैं। . अत्यन्त प्राचीन काल में राजर्षि वसु ने सुमागधी के तट पर इस नगरी को बसाया था। तब वसुमती के नाम से ही यह लोक में विख्यात थी। इसी वसुमती के पराग भीने शाल्मली वनों में क्षात्रजात ऋषि विश्वामित्र और कोषिक, आरण्यक तपोसाधना में लीन विचरते रहे हैं । मणिमान नामा वासुकी नाग की मणिकूप बॉबी से इसके वन-कानन रातों में भी शलमलाते रहते हैं।
द्वापर में वसुवंश के राजा वृहद्रथ ने यहां राज्य किया। वृषभगिरि पर्वत पर एक बार विहार करते हुए, वृहद्रथ को एक विशाल काय गेंडे से मल्लयुद्ध करना पड़ा था। गेंडे ने आखिर पछाड़ खा कर, अपने पेट और पीठ से प्रतापी वृहद्वय के
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