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'तुम कौन हो, मां ?' 'तुम जो कह रहे हो , वही ।'
'मां • • • ssss ।'
'हां • • • sss ।' 'आज्ञा दो।' 'आये हो, तो तुम्हारे वीर्य को जानना चाहती हूँ। मैं तुम पर प्रीत हुई।'
'जानो - 'जो चाहो मेरा जानो। चाहता हूँ, कोई मुझे पूरा जाने, ताकि अपने को पूरा जान सकं । वही दर्पण हो क्या तुम ?'
'देखो अपने को, और जानो कि मैं कौन हूँ।' 'हाँ, आज की रात अपने को देखना चाहता हूँ !' 'तथास्तु ! जय हो तुम्हारी ! जब पुकारोगे, आऊंगी।'
कह कर वह विचित्र भील कन्या देखते-देखते अरण्य के नीरन्ध्र प्रदेश में जाने कहां विलीन हो गई।
पार्थिवता में लौटकर मैंने पाया, मेरे रथ के दोनों अश्व रथ सहित मेरे दोनों कन्धों पर अपना-अपना मुख ढाँपे हुए थे। हाल ही में चरी हुई वनस्पतियों की दिव्य गन्ध उनके श्वासों में बह रही थी। और वे मेरे कन्धों में दुबक कर शरणागत थे। और मेरे रक्षक भी। उन प्राणियों की वह ममता कितनी अकारण, और निष्काम थी। मैंने उन दोनों के मंह कन्धों से हटा कर अपनी छाती में भर लिये । उन्होंने गहरी आश्वस्ति का निःश्वास छोड़ा। मैंने बहुत प्यार से उनके माथे, अयाल और डील को सहलाया, थपथपाया। वे हिनहिना कर मुझसे जो कहना चाह रहे थे, उसका बोध पा गया। मैंने उन्हें रथ से खोल कर, एक झरने तट की हरियाली में छोड़ दिया, कि जी भर चरें और जलपान करें।
'मेरे भीतर तो ऐसी तृप्ति उमड़ रही थी, कि भूख अपरिचित-सी लगी। पूर्व की शिखर-माला पर पीताभ चन्द्रमा उदय हो आये थे। झीनी अंशुकी चाँदनी में आवृत्त होकर अरण्यानियाँ स्वप्न के विचित्र भवनों-सी लग रही थीं। झिल्ली की झंकार में वह सारी निर्जनता उज्जीवित हो उठी थी।
एक उद्ग्रीव चट्टान पर, दायें हाथ का सिरहाना कर मैं लेट गया । शरीर पर बहुमूल्य और सुखद वसन होते हुए भी लगा, कि वे सारे आवेष्टन हट गये हैं, सिमट गये हैं । विवस्त्र हो गया है, और मेरे अंग-अंग. मेरी देह का प्रत्येक परमाण,
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